Monday, March 25, 2013

बारह भावनाएं (बारह अनुप्रेक्षा)

बारह भावनाएं (बारह अनुप्रेक्षा)

१.अनित्य भावना

अनित्य भावना हमें सिखाती है…कि यह शरीर कि जवानी,घर-वार,राज्य संपत्ति,गाय-बैल,स्त्री के सुख,हाथी,घोड़े,परिवारीजन,कुटुम्बी जन..और आज्ञा को मानने वाले नौकर..और पांचो इन्द्रियों के भोग क्षण-भंगुर हैं..हमेशा नहीं रहते हैं..अनित्य हैं..अस्थायी हैं…यह सारे सुख आकुलता को देने वाले ही हैं..और दुःख को देने वाले ही हैं….यह सुख बिजली और इन्द्रधनुष कि चंचलता के सामान क्षण-भंगुर हैं..जिस प्रकार इन्द्र-धनुष और बिजली कुछ सेकंड के लिए ही आसमान में रहती हैं..उसी प्रकार यह इन्द्रिय जन्य सुख औ राज्य संपत्ति,गोधन,गृह,नारी,हाथी घोड़े थोड़े समय के लिए ही हैं…अनित्य हैं. जिस प्रकार विवेकी जीव झूठे भोजन को खाने में,चाहे कितना भी स्वादिष्ट हो..कभी ममत्व नहीं दिखता है..उसी प्रकार इस अनित्य भावना को भाने से जीव इस संसार के झूठे भोगों से,लाखो बार भोगे हुए भोगों से कभी ममत्व नहीं करता है..और न ही इनके वियोग में अरति करता और संयोंग में रति करता है यह अनित्य भावना भाने का फल है.

२.अशरण भावना

अशरण का अर्थ है कहीं भी शरण नहीं है….चाहे सुरेन्द्र,असुरेन्द्र,नागेन्द्र हों,खगेंद्र..नरेन्द्र हों….वह भी काल रुपी सिंह के सामने हिरण के सामान हैं…और उनको भी शरीर को त्याग कर…नई योनियों में सारे महल राज पाट छोड़ के जाना पड़ता है…और कर्मों का फल भोगना पड़ता है…..चाहे कैसी भी मणि हो,मंत्र हो,तंत्र हो,बड़े से बड़ी शक्ति हो,माता,पिता,देवी,देवता,सेना,औषधि,पुत्र…या कैसा भी चेतन या अचेतन पदार्थ हो…मृत्यु से कोई नहीं बचा सकता है….तथा मृत्यु से कोई नहीं बच सका है…कहीं भी शरण नहीं है.यह अशरण भावना है इस अशरण भावना को भाने से समता भाव जागृत होता है..और इस भावना को भाने वाला जीव शरीर त्याग के समय शोक नहीं करता है..और न ही किसी अन्य के देह-अवसान में शोक करता है….और न ही संसार के भौतिक-सुखों में रति करता है.

३.संसार भावना

यह जीव चारो गतियों में चाहे स्वर्ग हो,नरक हो,मनुष्य पर्याय हो,या तिर्यंच पर्याय हो…सब में दुःख ही दुःख भोगता है,कहीं भी इस संसार में सुख नहीं नहीं है..हर तरफ से हर दृष्टी से यह जीव चारो गतियों में दुःख भोगता है..और द्रव्य,क्षेत्र,भाव,भव और काल के परिवर्तन सहता है यानि की हर विधि से हर तरीके से संसार असार है,बिना किसी सार का है,हर जगह दुःख है..और इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है…ऐसा चिंतन करना संसार भावना का लक्षण है. इस भावना को भाने वाला जीव कभी भी दुखी नहीं होता है..लेकिन संसार से उदासीन रहता है…वैरागी रहता है.

४.एकत्व भावना

सारे शुभ और अशुभ कर्मों के फल जितने भी हैं..यह जीव अकेला हो भोगता है..कोई साथ न देने वाला होता है…माता,पिता,पुत्र,नारी,दोस्त,रिश्तेदार अपनी कोई रिश्तेदारी नहीं निभाते हैं….सिर्फ स्वार्थ के लिए सगे बन जाते हैं…और स्वार्थ ख़त्म होने पर धोका दे जाते हैं…चाहे सुख हो या दुःख यह जीव अकेला ही सहन करता है…साथी-सगे तोह सब कहने मात्र के हैं.

५.अन्यत्व भावना

यह जीव और शरीर ,पानी और दूध के सामान एक दुसरे से मिले हुए हैं…लेकिन फिर भी दोनों-दोनों भिन्न-भिन्न हैं.एक नहीं हैं..अगर शरीर और आत्मा एक ही होती तोह क्या मुर्दे में जान नहीं होती,फिर ऐसा क्यों होता है कि आत्मे के शरीर से निकलते ही..सारा शरीर ऐसे ही पड़ा रह जाता है,कहाँ चली जाती है उसमें से चेतनता..यानि कि हम जीव हैं,शरीर नहीं हैं…जब शरीर और आत्मा अलग हैं तब जो पर-वस्तुएं,भौतिक वस्तुएं हैं..धन,घर,परिवार है राज्य है,सम्पदा है,पुत्र है,स्त्री है..वह मेरी कैसे हो सकती है…ऐसा चिंतन करना अन्यत्व भावना है

६.अशुचि भावना

यह शरीर मांस,खून,पीप,विष्ट,गंध्गी,मल,मूत्र,पसीना..अदि कि थैली है..और हड्डी,चर्बी अदि अपवित्र पदार्थों से मलिन है…और इस शरीर में से नौ द्वार में से निरंतर मैल निकलता रहता है…और इतना ही नहीं इस शरीर के स्पर्श से पवित्र पदार्थ भी अपवित्र हो जाते हैं…बहुत गंध है यह शरीर..और ऐसे शरीर से कौन प्रेम करना चाहेगा,कौन मोह रखना चाहेगा…ऐसा चिंतन करना अशुचि भावना है.

७.आश्रव भावना

मन-वचन और काय के निमित्त से आत्मा mein हलन-चलन-कम्पन रूप चंचलता को आश्रव कहते हैं..आश्रव से कर्म आते हैं..यह आश्रव बहुत दुःख दाई है..क्योंकि इसकी वजह से आत्मा के प्रदेश कर्मों से बंधते हैं..जिससे आत्मा का अनंत सुख वाला स्वाभाव ढक जाता है,ज्ञान दर्शन स्वाभाव ढक जाता है..इसलिए बुद्धिमान पुरुष इस आश्रव से दूर रहने के प्रयत्न में लगे रहते हैं..इससे मुक्त होने की चाह रखते हैं..मिथ्यादर्शन,अविरत और कषाय और प्रमाद के साथ आत्मा में परवर्ती नहीं करते हैं..और कम करते हैं.ऐसा चिंतन करना आश्रव भावना है.

८.संवर भावना

जिन्होंने पुण्य और पाप नहीं किया,शुभ और अशुभ कर्मों के फल में रति और अरति नहीं कि..शुभ और अशुभ भाव नहीं किये….और आत्मा के अनुभव में मन को लगाया..आत्मा स्वाभाव में लीं हुए..या लीं होने..वह आते हुए कर्मों को आत्मा के प्रदेशों में मिल जाने से रोक लेंगे..कर्मों के आश्रव द्वार को बंद करेंगे,बंध को रोक लेंगे…और संवर को प्राप्त करके आकुलता रहित सुख का साक्षात्कार करेंगे..ऐसी भावना भाना संवर भावना है.

९.निर्जरा भावना

जब कर्म अपना समय आने पर फल देने लग जाए..मतलब अपने अपने समय पर फल देने लग जाएँ..और फल देकर चले जाएँ..यह तो अकाम निर्जरा है..या विपाक निर्जरा..इससे इस जीव का कोई भी लाभ नहीं है..कोई भी काम सिद्ध नहीं होता है..जब कर्म बिना फल दिए ही चले जाए..जो सिर्फ सम्यक तप के माध्यम से संभव है..तोह अविपाक निर्जरा है..सकाम निर्जरा है..जो शिव सुख को,मोक्ष सुख को आकुलता रहित सुख को प्राप्त कराती है

१०.लोक भावना

जहाँ ६ द्रव्यों का निवास है,वह तीन लोक हैं..जो शास्वत ६ द्रव्यों से बना हुआ है..इसको न किसी ने बनाया है..न कोई धारण कर रहा है,न कोई चला रहा है..और न ही कभी नष्ट होंगे..और ६ द्रव्य भी शास्वत हैं..अनादि निधन हैं यह तीनों लोक ..इन तीनों लोकों में यह जीव समता भाव के अभाव में..संतोष के अभाव में,वीतरागता और वीतराग भावों के अभाव में यह जीव संसार में दुःख सहता है…और जन्म मरण के दुखों को सहन करता है…वीतराग अवस्था पाने से यह जीव आकुलता रहित सुख को प्राप्त करता है.

११.बोधि दुर्लभ भावना

इस जीव ने नवमें ग्रैवेयक के विमानों तक ..जो सोलह स्वर्गों से भी ऊपर हैं..वहां भी पर्याय ली..और एक बार नहीं अनंत बार यहाँ पर्याय ले कर अह्मिन्द्र,अदि देवों तक का पद पाया…लेकिन जब भी आत्मा के ज्ञान के बिना इस जीव ने सुख लेश मात्र नहीं पायो..नरक,त्रियंच मनुष्य की योनियों में दुःख की बात करें तोह चलता है..लेकिन स्वर्गों में भी यह जीव दुखी रहा..और वहां भी लेश मात्र भी सुख ग्रहण नहीं किया…जो की सम्यक ज्ञान के अभाव की वजह से था…और ऐसे दुर्लभ सम्यक ज्ञान को मुनिराज ने अपने ही आत्मा स्वरुप में साधा हुआ..कहीं बाहार से नहीं खोजा है..इसलिए संसार में सबकुछ सुलभ है,घर,परिवार,कुटुंब,उत्तम कुल, विद्या, धन ,पैसा,बुद्धि,होसियारी…यह सब सम्यक ज्ञान की दुर्लभता के आगे सुलभ ही हैं..और यह सम्यक ज्ञान अपार सुख को प्राप्त करने वाला है.आकुलता रहित सुख को प्राप्त करता है.कर्मों का जोड़ इस सम्यक ज्ञान रुपी छैनी के द्वारा ही तोडा जाता है.

12.धर्म भावना

जो भाव पवित्र हैं और मोह से रहित हैं..मिथ्यात्व(गृहीत और अग्रहित) से रहित हैं.वह सम्यक ज्ञान,सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र हैं और यह ही धर्म है..जब इस धर्म को जब यह जीव साधता है..धारण करता है..तोह अचल सुख को प्राप्त प्राप्त करता है..यानि की जहाँ मोह-मिथ्यात्व है वहां धर्म नहीं है…ऐसा चिंतन करना धर्म भावना है Baraah Bhavana – 12 Inspirations (बारह भावना)


राजा राणा छत्रपति हाथिन के असवार, मरना सबको एक दिन अपनी अपनी बार.
RAAJAA RAANAA CHATRAPATI, HAATHIN KE ASVAAR, MARNAA SABKO EK DIN APNI APNI BAAR.
Every one must die one day including the high and mighty.

दल बल देवी देवता मात पिता परिवार, मरती विरियाँ जीव को कोई न राखन हार.
DAL BAL DEVI DEVTAA MAAT PITAA PARIVAAR, MARTEE VIRIYAA JEEV KO KOEE NA RAAKHAN HAAR.
No one can defy death including the strongest, divine beings, parents and family.

दाम बिना निर्धन दुखी तृष्णा वश धनवान, कहूं न सुख संसार में सब जग देख्यो छान.
DAAM BINAA NIRDHAN DUKHEE TRISHNAA VASH DHANVAAN, KAHOO NA SUKH SANSAAR ME SAB JUG DEKHYO CHAAN.
Poverty is the root cause of unhappiness for poor. Greed is the root cause of unhappiness for Wealthy. There is no happiness in this world.

आप अकेलो अवतरे मरे अकेलो होय, यों कबहूं इस जीव को साथी सगा न कोय.
AAP AKELO AVTARE MARE AKELO HOY, YO KABHU ES JEEV KO SAATHI SAGAA NA KOY.
Every one comes alone in this world and dies alone as well. All worldly relations are left behind.

जहाँ देह अपनी नहीं तहाँ न अपनो कोय, घर संपति पर प्रगट ये पर हैं परिजन लोय.
JAHAA DEH APNI NAHEE TAHAA NA APNO KOY, GHAR SAMPATI PAR PRAGAT YE PAR HAI PARIJAN LOY.
In this material world, everything is left behind and nothing belongs to anyone.

दिपे चाम चादर मढ़ी हाड़ पींजरा देह, भीतर या सम जगत में और नहीं घिन गेह.
DIPE CHAAM CHAADAR MADHI HAAD PEENJARAA DEH, BHEETAR YAA SAM JAGAT ME AUR NAHEE GHIN GEH.
Like a beautiful body covered with skin, hides bones in the empty cage, similarly, inside of the glittering world lay deep ocean of emptiness.

मोह नींद के जोर जग वासी घूमे सदा, कर्म चोर चहुँ ओर सरवस लूटे सुध नहीं.
MOH NEEND KE JOR JUG VAASEE GHOOME SADAA, KARM CHOR CHAHU OR SARVAS LOOTE SUDH NAHEE.
Worldly attachments blindly rob a person of everything.

सत गुरु देय जगाय मोह नींद जब उपशमै, तब कछु बनहि उपाय कर्म चोर आवत रूकै.
SAT GURU DEY JAGAAY MOH NEEND JAB UPSHAMAI, TAB KACHU BANHI UPAAY, KARM CHOR AAVAT ROOKAI.
A true teacher helps a person to overcome worldly attachments and lead him/her on the path of self realization.

ज्ञान दीप तप तेल भर घर शोधे भ्रम छोर, या विधि बिन निकसैं नहीं पैठे पूरब चोर.
GYAAN DEEP TAP TEL BHAR GHAR SHODHE BHRAM CHOOR, YAA VIDHI BIN NIKSAI NAHEE PAITHE PURAB CHOR.
Meditation helps to light up inner self, remove ignorance and leads to self realization.

पंच महा व्रत संचरण समिति पंज परकार, प्रबल पंच इन्द्रिय विजय धार निर्जरा सार.
PANCH MAHAA VRT SNCHARAN SAMITI PANJ PARKAAR, PRABAL PANCH ENDRIYA VIJAY DHAAR NIRJARAA SAAR.
Those following five vows of Jain code of conduct help them to conquer inner self.

चौदह राजु उतंग नभ लोक पुरुष संठान, तामें जीव अना दिते भरमत हैं बिन ज्ञान.
CHOUDAH RAJU UTANG NABH LOK PURUSH SANTHAAN, TAAME JEEV ANAA DITAY BHARMAT HAI BIN GYAAN.
The high and mighty may rule others but without self enlightenment life is unfulfilled.

धन कन कंचन राज सुख सबहि सुलभ कर जान, दुर्लभ है संसार में एक जथा-रथ ज्ञान.
DHAN KAN KANCHAN RAAJ SUKH SABHI SULABH KER JAAN, DURLABH HAI SANSAAR ME EK JATHAA-RATH GYAAN.
Having wealth and ruling over kingdom is easy but self realization and enlightenment is most difficult to achieve.

जाँचे सुर तरु देय सुख चिंतत चिंता रैन, बिन जाचै बिन चिंतये धर्म सकल सुख दैन.
JAANCHE SUR TARU DEY SUKH CHINTAN CHINTAA RAIN, BIN
JAANCHE BIN CHINTAYE DHARM SAKAL SUKH DAIN.
All may be absorbed in worries but the one who follows the righteous path attains self realization, enlightenment and salvation.

Friday, March 22, 2013

संत इस युग के महावीर है।



एक संत जो ज्ञान से सराबोर है 
एक संत जो वात्सल्य की प्रतिकृति है 
एक संत जो दीक्षा सम्राट है 
एक संत जो स्वर्ण मई तपस्वी है 
एक संत जो अनुपम शिल्पी है 
एक संत जो नूतन चिंतन के कृषि है
एक संत जो जिनागम के पथिक है
एक संत जो सबके आदर्शोत्तम है
एक संत जो गुरु के उपासक है
एक संत को आसमान से अधिक विशाल है
एक संत जो हिमालय से ऊँचे है
एक संत जो सागर से गंभीर है
ऐसे संत को जाने, माने, पहचाने
क्योंकि यही इस युग के महावीर है।

बड़ी साधु वन्दना



लाभ: सरल और स्पष्ट अर्थवाली सुगम भाषा में  पूज्य आचार्य श्री जयमल जी महाराज द्वारा  रचित बड़ी साधु वन्दना श्रद्धा और भक्ति बढ़ाने वाली है । समझपूर्ण, भावविभोर होकर पढ़ने से नरक के बंधन कट जाते हैं। सम्यक्त्व की शुद्धि होती है । देवगति की प्राप्ति होती है । आगामी भव में संयम सुलभ होता है, यावत् उत्कृष्ट रसायन आ जाय तो तीर्थंकर गोत्र का बंध भी हो जाता है । बड़ी साधु वन्दना के पाठ से विष्न नष्ट होते हैं । दुष्ट व्यक्ति दबते हंै । अनेक बाधा पीड़ा मिट जाती है। इसका पुण्य प्रभाव प्रत्यक्ष है ।

विधि: सीधा, ओंधा या टेड़ा किसी भी प्रकार से भूमि में गिरा हुआ बीज उगता है और फल देता है । उसी प्रकार बड़ी साधु वन्दना का भी ‘कभी भी, कैसे भी’ पाठ करें फलदायी है । बड़ी साधु वन्दना के स्मरण के लिये कोई काल का बंधन तथा क्षेत्र का कोई आग्रह नहीं है । सरल मातृभाषा में होने से शब्द अशुद्धि का भी भय नहीं है । अतः भव्यजन भावपूर्वक नित्य पाठ कर लाभान्वित हों ।

नमूं अनंत चैबीसी, ऋषभादिक महावीर ।
इण आर्य क्षेत्र मां, घाली धर्म नी सीर ।।1।।
महाअतुल-बली नर, शूर-वीर ने धीर ।
तीरथ प्रवर्तावी, पहुंचा भव-जल-तीर ।।2।।
सीमंधर प्रमुख, जघन्य तीर्थंकर बीस ।
छै अढ़ी द्वीप मां, जयवंता जगदीश ।।3।।
एक सौ ने सत्तर, उत्कृष्ट पदे जगीश ।
धन्य मोटा प्रभुजी, तेह ने नमाऊँ शीश ।।4।।
केवली दोय कोड़ी, उत्कृष्टा नव कोड़ ।
मुनि दोय सहस कोड़ी, उत्कृष्टा नव सहस कोड़ ।।5।।
विचरे छै विदेहे, मोटा तपसी घोर ।
भावे करि वंदूं, टाले भव नी खोड़ ।।6।।
चैबीसे जिन ना, सगला ही गणधार ।
चैदह सौ ने बावन, ते प्रणमूँ सुखकार ।।7।।
जिनशासन-नायक, धन्य श्री वीर जिनंद ।
गौतमादिक गणधर, वर्तायो आनंद ।।8।।
श्री ऋषभदेव ना, भरतादिक सौ पूत ।
वैराग्य मन आणी, संयम लियो अद्भूत ।।9।।
केवल उपजाव्यूं, कर करणी करतूत ।
जिनमत दीपावी, सगला मोक्ष पहूंत ।।10।।
श्री भरतेश्वर ना, हुआ पटोधर आठ ।
आदित्यजशादिक, पहुंत्या शिवपुर-वाट ।।11।।
श्री जिन-अंतर ना, हुआ पाट असंख ।
मुनि मुक्ति पहुंत्या, टालि कर्म नो वंक ।।12।।
धन्य कपिल मुनिवर, नमी नमूं अणगार ।
जेणे तत्क्षण त्याग्यो, सहस-रमणी-परिवार ।।13।।
मुनि बल हरिकेशी, चित्त मुनीश्वर सार ।
शुद्ध संयम पाली, पाम्या भव नो पार ।।14।।
वलि इखुकार राजा, घर कमलावती नार ।
भग्गू ने जशा, तेहना दोय कुमार ।।15।।
छये छती ऋद्ध छांडी, लीधो संयम-भार ।
इण अल्पकाल मां, पाम्या मोक्ष-द्वार ।।16।।
वलि संयति राजा, हिरण-आहिडे जाय ।
मुनिवर गर्दभाली, आण्यो मारग ठाय ।।17।।
चारित्र लेई ने, भेट्या गुरु ना पाय ।
क्षत्री राज ऋषीश्वर, चर्चा करी चित लाय ।।18।।
वलि दशे चक्रवर्ती, राज्य-रमणी ऋद्धि छोड़ ।
दशे मुक्ति पहुंत्या, कुल ने शोभा च्होड़ ।।19।।
इस अवसर्पिणी काल मां, आठ राम गया मोक्ष ।
बलभद्र मुनीश्वर, गया पंचमे देवलोक ।।20।।
दशार्णभद्र राजा, वीर वांद्या धरि मान ।
पछि इंद्र हटायो, दियो छः काय-अभयदान ।।21।।
करकंडू प्रमुख, चारे प्रत्येक बुद्ध ।
मुनि मुक्ति पहुंत्या, जीत्या कर्म महाजुद्ध ।।22।।
धन्य मोटा मुनिवर, मृगापुत्र जगीश ।
मुनिवर अनाथी, जीत्या राग ने रीश ।।23।।
वलि समुद्रपाल मुनि, राजमती रहनेम ।
केशी ने गौतम, पाम्या शिवपुर-खेम ।।24।।
धन विजयघोष मुनि, जयघोष वलि जाण ।
श्री गर्गाचार्य, पहुंत्या छै निर्वाण ।।25।।
श्री उत्तराध्ययन मां, जिनवर कर्या बखाण ।
शुद्ध मन से ध्यावो, मन में धीरज आण ।।26।।
वलि खंदक संन्यासी, राख्यो गौतम-स्नेह ।
महावीर समीपे, पंच महाव्रत लेह ।।27।।
तप कठिन करीने, झौंसी आपणी देह ।
गया अच्युत देवलोके, चवि लेसे भव-छेह ।।28।।
वलि ऋषभदत्त मुनि, सेठ सुदर्शन सार ।
शिवराज ऋषीश्वर, धन्य गांगेय अणगार ।।29।।
शुद्ध संयम पाली, पाम्या केवल सार ।
ये चारे मुनिवर, पहुंच्या मोक्ष मंझार ।।30।।
भगवंत नी माता, धन-धन सती देवानंदा ।
वलि सती जयंती, छोड़ दिया घर-फंदा ।।31।।
सति मुक्ति पहुंत्या, वलि ते वीर नी नंद ।
महासती सुदर्शना, घणी सतियों ना वृंद ।।32।।
वलि कार्तिक सेठे, पडि़मा वही शूर-वीर ।
जीम्यो मोरां ऊपर, तापस बलती खीर ।।33।।
पछी चारित्र लीधो, मित्र एक सहस आठ धीर ।
मरी हुओ शक्रेन्द्र, चवि लेसे भव-तीर ।।33।।
वलि राय उदायन, दियो भाणेज ने राज ।
पछी चारित्र लेईने, सार्या आतम-काज ।।35।।
गंगदत्त मुनि आनंद, तारण-तरण जहाज ।
मुनि कौशल रोहो, दियो घणां ने साज ।।36।।
धन्य सुनक्षत्र मुनिवर, सर्वानुभूति अणगार ।
आराधक हुई ने, गया देवलोक मझार ।।37।।
चवि मुक्ति जासे, वलि सिंह मुनीश्वर सार ।
बीजा पण मुनिवर, भगवती मां अधिकार ।।38।।
श्रेणिक नो बेटो, मोटो मुनिवर मेघ ।
तजी आठ अंतेउरी, आण्यो मन संवेग ।।39।।
वीर पै व्रत लेई ने, बांधी तप नी तेग ।
गया विजय विमाने, चवि लेसे शिव-वेग ।।40।।
धन्य थावच्चा पुत्र, तजी बतीसो नार ।
तेनी साथे निकल्या, पुरुष एक हजार ।।41।।
शुकदेव संन्यासी, एक सहस शिष्य लार ।
पांच-सौ से शेलक, लीधो संयम-भार ।।42।।
सब सहस अढ़ाई, घणा जीवों ने तार ।
पुंडरिकगिरि ऊपर, कियो पादोपगमन संथार ।।43।।
आराधक हुई ने, कीधो खेवो पार ।
हुआ मोटा मुनिवर, नाम लियां निस्तार ।।44।।
धन्य जिनपाल मुनिवर, दोय धन्ना हुआ साध ।
गया प्रथम देवलोके, मोक्ष जासे आराध ।।45।।
श्री मल्लीनाथ ना छह मित्र, महाबल प्रमुख मुनिराय ।
सर्वे मुक्ति सिधाव्या, मोटी पदवी पाय ।।46।।
वलि जितशत्रु राजा, सुबुद्धि नामे प्रधान ।
पोते चारित्र लई ने, पाम्या मोक्ष-निधान ।।47।।
धन्य तेतली मुनिवर, दियो छ काय अभयदान ।
पोटिला प्रतिबोध्या, पाम्या केवलज्ञान ।।48।।
धन्य पांचे पांडव, तजी द्रौपदी नार ।
थेवरां नी पासे, लीधो संयम-भार ।।49।।
श्री नेमि वंदन नो, एहवो अभिग्रह कीध ।
मास-मासखमण तप, शत्रुंजय जई सिद्ध ।।50।।
धर्मघोष तणा शिष्य, धर्मरुचि अणगार ।
कीडि़यों नी करुणा, आणी दया अपार ।।51।।
कड़वा तूँबा नो, कीधो सगलो आहार ।
सर्वार्थसिद्ध पहुंत्या, चवि लेसे भव-पार ।।52।।
वलि पुंडरिक राजा, कुंडरिक डिगियो जाण ।
पोते चारित्र लेई ने, न घाली धर्म मां हाण ।।53।।
सर्वार्थसिद्ध पहुंत्या, चवि लेसे निर्वाण ।
श्री ज्ञातासूत्र मां, जिनवर कर्या बखाण ।।54।।
गौतमादिक कुंवर, सगा अठारे भ्रात ।
सब अंधकविष्णु-सुत, धारिणी ज्यांरी मात ।।55।।
तजी आठ अंतेउर, काढ़ी दीक्षा नी बात ।
चारित्र लेई ने, कीधो मुक्ति नो साथ ।।56।।
श्री अनीकसेनादिक, छहे सहोदर भाय ।
वसुदेव ना नंदन, देवकी ज्यांरी माय ।।57।।
भद्दिलपुर नगरी, नाग गाहावई जाण ।
सुलसा-घर वधिया, सांभली नेम नी वाण ।।58।।
तजी बत्तीस-बत्तीस अंतेउर, निकलिया छिटकाय ।
नल कूबेर समाना, भेट्या श्री नेमि ना पाय ।।59।।
करी छठ-छठ पारणा, मन में वैराग्य लाय ।
एक मास संथारे, मुक्ति विराज्या जाय ।।60।।
वलि दारुक सारण, सुमुख-दुमुख मुनिराय ।
वलि कुंवर अनाधृष्ट, गया मुक्ति-गढ़ मांय ।।61।।
वसुदेव ना नंदन, धन-धन गजसुकुमाल ।
रूपे अति सुंदर, कलावन्त वय बाल ।।62।।
श्री नेमी समीपे, छोड्यो मोह-जंजाल ।
भिक्षु नी पडि़मा, गया मसाण महाकाल ।।63।।
देखी सोमिल कोप्यो, मस्तक बांधी पाल ।
खेरा नां खीरा, शिर ठविया असराल ।।64।।
मुनि नजर न खंडी, मेटी मन नी झाल ।
परीषह सही ने, मुक्ति गया तत्काल ।।65।।
धन जाली मयाली, उवयाली आदि साध ।
शांब ने प्रद्युम्न, अनिरुध साधु अगाध ।।66।।
वलि सतनेमि, दृढ़नेमि, करणी कीधी निर्बाध ।
दशे मुक्ति पहुंत्या, जिनवर-वचन आराध ।।67।।
धन अर्जुनमाली, कियो कदाग्रह दूर ।
वीर पै व्रत लई ने, सत्यवादी हुआ शूर ।।68।।
करी छठ-छठ पारणा, क्षमा करी भरपूर ।
छह मासां मांही, कर्म किया चकचूर ।।69।।
कुँवर अइमुत्ते, दीठा गौतम स्वाम ।
सुणि वीर नी वाणी, कीधो उत्तम काम ।।70।।
चारित्र लेई ने, पहुंत्या शिवपुर-ठाम ।
धुर आदि मकाई, अन्त अलक्ष मुनि नाम ।।71।।
वलि कृष्णराय नी, अग्रमहिषी आठ ।
पुत्र-बहु दोय, संच्या पुण्य ना ठाठ ।।72।।
जादव-कुल सतियां, टाल्यो दुःख उचाट ।
पहुंची शिवपुर मां, ए छे सूत्र नो पाठ ।।73।।
श्रेणिक नी राणी, काली आदिक दश जाण ।
दशे पुत्र-वियोगे, सांभली वीर नी वाण ।।74।।
चंदनबाला पै, संयम लेई हुई जाण ।
तप कर देह झौंसी, पहुंची छै निर्वाण ।।75।।
नंदादिक तेरह, श्रेणिक नृप नी नार ।
सगली चंदनबाला पै, लीधो संयम-भार ।।76।।
एक मास संथारे, पहुंची मुक्ति मंझार ।
ए नेवुं जणा नो, अंतगड मां अधिकार ।।77।।
श्रेणिक ना बेटा, जाली आदिक तेवीस ।
वीर पै व्रत लेई ने, पाल्यो विसवावीस ।।78।।
तप कठिन करी ने, पूरी मन जगीश ।
देवलोके पहुंत्या, मोक्ष जासे तजी रीश ।।79।।
काकन्दी नो धन्नो, तजी बत्तीसे नार ।
महावीर समीपे, लीधो संयम भार ।।80।।
करी छठ-छठ पारणा, आयंबिल उज्झित आहार ।
श्री वीर बखाण्यो, धन धन्नो अणगार ।।81।।
एक मास संथारे, सर्वार्थसिद्ध पहुंत ।
महाविदेह क्षेत्र मां, करसे भवनो अंत ।।82।।
धन्ना नी रीते, हुआ नव ही संत ।
श्री अनुत्तरोववाई मां, भाखि गया भगवंत ।।83।।
सुबाहु प्रमुख, पांच-पांच सौ नार ।
तजी वीर पे लीधा, पांच महाव्रत सार ।।84।।
चारित्र लेई ने, पाल्यो निर् अतिचार ।
देवलोक पहुंच्या, सुखविपाके अधिकार ।।85।।
श्रेणिक ना पोता, पउमादिक हुआ दस ।
वीर पै व्रत लेई ने, काढ़्यो देह नो कस ।।86।।
संयम आराधी, देवलोक मां जई बस ।
महाविदेह क्षेत्र मां, मोक्ष जासे लेई जस ।।87।।
बलभद्र ना नन्दन, निषधादिक हुआ बार ।
तजी पचास अंतेउरी, त्याग दियो संसार ।।88।।
सहु नेमि समीपे, चार महाव्रत लीध ।
सर्वार्थसिद्ध पहुंच्या, होसे विदेहे सिद्ध ।।89।।
धन्ना ने शालिभद्र, मुनीश्वरों नी जोड़ ।
नारी ना बंधन, तत्क्षण नांख्या तोड़ ।।90।।
घर-कुटुम्ब-कबीलो, धन-कंचन नी कोड़ ।
मास-मासखमण तप, टालसे भव नी खोड़ ।।91।।
श्री सुधर्मा ना शिष्य, धन-धन जंबू स्वाम ।
तजी आठ अंतेउरी, मात-पिता धन-धाम ।।92।।
प्रभवादिक तारी, पहुंत्या शिवपुर-ठाम ।
सूत्र प्रवर्तावी, जग मां राख्यूं नाम ।।93।।
धन ढंढण मुनिवर, कृष्णराय ना नंद ।
शुद्ध अभिग्रह पाली, टाल दियो भव-फंद ।।94।।
वलि खंदक ऋषि नी, देह उतारी खाल ।
परीषह सही ने, भव-फेरा दिया टाल ।।95।।
वलि खंदक ऋषि ना, हुआ पांचसौ शीश ।
घाणी मां पील्या, मुक्ति गया तज रीश ।।96।।
संभूतिविजय-शिष्य, भद्रबाहु मुनिराय ।
चैदह पूर्वधारी, चंद्रगुप्त आण्यो ठाय ।।97।।
वलि आद्र्रकुंवर मुनि, स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो, मुनीश्वरों नी श्रेण ।।98।।
चैबीसे जिन ना मुनिवर, संख्या अठावीश लाख ।
ऊपर सहस अड़तालीस, सूत्र परंपरा भाख ।।99।।
कोई उत्तम वांचो, मोंढे जयणा राख ।
उघाड़े मुख बोल्यां, पाप लगे इम भाख ।।100।।
धन्य मरुदेवी माता, ध्यायो निर्मल ध्यान ।
गज-होदे पायो, निर्मल केवल ज्ञान ।।101।।
धन आदीश्वर नी पुत्री, ब्राह्मी सुन्दरी दोय ।
चारित्र लेई ने, मुक्ति गई सिद्ध होय ।।102।।
चैबीसे जिन नी, बड़ी शिष्यणी चैबीस ।
सती मुक्ति पहुंच्या, पूरी मन जगीश ।।103।।
चैबीसे जिन ना, सर्व साधवी सार ।
अड़तालीस लाख ने, आठ से सत्तर हजार ।।104।।
चेड़ा नी पुत्री, राखी धर्म नी प्रीत ।
राजीमती विजया, मृगावती सुविनीत ।।105।।
पद्मावती मयणरेहा, द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियां, गई जमारो जीत ।।106।।
चैबीसे जिन नां, साधु-साधवी सार ।
गया मोक्ष देवलोके, हृदय राखो धार ।।107।।
इण अढ़ी द्वीप मां, घरड़ा तपसी बाल ।
शुद्ध पंच महाव्रत धारी, नमो-नमो तिहुं काल ।।108।।
इण यतियों सतियों ना, लीजे नित प्रति नाम ।
शुद्ध मन थी ध्यावो, एह तिरण नो ठाम ।।109।।
इण यतियों सतियों सूं, राखो उज्ज्वल भाव ।
इम कहे ऋषि ‘जयमल’ एह तिरण नो दाव ।।110।।
संवत् अठारा ने, वर्ष साते सिरदार ।
गढ़ जालोर मांही, एह कह्यो अधिकार ।।111।।

Monday, March 18, 2013

मिलता है सच्चा सुख केवल भगवान तुम्हारे चरणों मे



मिलता है सच्चा सुख केवल भगवान तुम्हारे चरणों मे |
यह विनती है पल पल छिन छिन, रहे ध्यान तुम्हारे चरणों मे ||

चाहे वैरी सब संसार बने, चाहे जीवन मुझ पर भर बने |
चाहे मौत गले का हार बने, रहे ध्यान तुम्हारे चरणों मे ||

चाहे अग्नि मे मुझे जलना हो, चाहे कांटो पे मुझे चलना हो |
चाहे छोड़ के देश निकलना हो, रहे ध्यान तुम्हारे चरणों मे ||

चाहे संकट ने मुझे घेरा हो, चाहे चारों और अंधेरा हो |
पर मन नहीं डगमग मेरा हो, रहे ध्यान तुम्हारे चरणों मे ||

जिव्हा पर तेरा नाम रहे, तेरा ध्यान सुबह और श्याम रहे |
तेरी याद मे आठों याम रहे, रहे ध्यान तुम्हारे चरणों मे ||.................

Monday, March 11, 2013

भगवान महावीर का सन्देश



संपूर्ण विश्व में एकमात्र जैन धर्मं ही इस बात में आस्था रखता हैं की प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान हैं. अर्थात भगवन महावीर स्वामी की तरह ही प्रत्येक व्यक्ति जैन धर्मं का ज्ञान प्राप्त करके उसमे सच्ची आस्था रखकर, उस अनुसार आचरण (कर्म) करके बड़े पुण्योदय से उसे प्राप्त दुर्लभ मानव योनी का 'एक मात्र सच्चा व अंतिम सुख' संपूर्ण जीवन जन्मा-मरण के बंधन से मुक्त होने वाले कर्म करते हुए मोक्ष महाफल पाने हेतु कदम बढ़ाना तथा उसे प्राप्त कर वीर महावीर बन दुर्लभ जीवन की सार्थक कर सकता है

जियो और जीने दो : भगवन महावीर स्वामी द्वारा इस सन्देश में संपूर्ण जैन धर्मं का आधार व्यक्त किया गया हैं.
भगवान महावीर स्वामी ने हमें अहिंसा का पालन करते हुए सत्य के पक्ष में रहते हुए किसी के हक को मारे बिना किसी को सताए बिना, अपनी मर्यादा में रहते हुए पवित्र मन से, लोभ लालच किये बिना, नियम से बंधकर सुख दुःख में समभाव में रहते हुए आकुल व्याकुल हुए बिना धर्मसंगत कर्म करते हुए 'मोक्ष पद' पाने की और कदम बढ़ते हुए दुर्लभ जीवन को सार्थक बनने का दिव्य सन्देश दिया हैं
क्या आपने वीर महावीर स्वामी बनने के पथ पर कदम बड़ा दिए हैं या यूँही दुर्लभ जीवन के बहुमूल्य पल गँवा रहे हो? जागो भाई जागो, फिर मौका मिले न मिले.

 *********जय जिनेन्द्र*******

Monday, March 4, 2013

जैन तीर्थंकरों का परिचय - Jain Tirthankar



 जैन धर्म के 24 तीर्थंकर है। इसमें से प्रथम तथा अंतिम चार तीर्थंकरों के बारे में बहुत कुछ पढ़ने को मिलता है किंतु उक्त के बीच के तीर्थंकरों के बारे में कम ही जानकारी मिलती हैं। निश्चित ही जैन शास्त्रों में इनके बारे में बहुत कुछ लिखा होगा, लेकिन आम जनता उनके बारे में कम ही जानती है। यहाँ प्रस्तुत है 24 तीर्थंकरों का सामान्य परिचय।

(1) आदिनाथ : प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ को ऋषभनाथ भी कहा जाता है और हिंदू इन्हें वृषभनाथ कहते हैं। आपके पिता का नाम राजा नाभिराज था और माता का नाम मरुदेवी था। आपका जन्म चैत्र कृष्ण पक्ष की अष्टमी-नवमी को अयोध्या में हुआ। चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा फाल्गुन कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन आपको कैवल्य की प्राप्ती हुई। कैलाश पर्वत क्षेत्र के अष्टपद में आपको माघ कृष्ण-14 को निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- बैल, चैत्यवृक्ष- न्यग्रोध, यक्ष- गोवदनल, यक्षिणी- चक्रेश्वरी हैं।

(2) अजीतनाथजी : द्वितीय तीर्थंकर अजीतनाथजी की माता का नाम विजया और पिता का नाम जितशत्रु था। आपका जन्म माघ शुक्ल पक्ष की दशमी को अयोध्या में हुआ था। माघ शुक्ल पक्ष की नवमी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा पौष शुक्ल पक्ष की एकादशी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल की पंचमी को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- गज, चैत्यवृक्ष- सप्तपर्ण, यक्ष- महायक्ष, यक्षिणी- रोहिणी है।

(3) सम्भवनाथजी : तृतीय तीर्थंकर सम्भवनाथजी की माता का नाम सुसेना और पिता का नाम जितारी है। सम्भवनाथजी का जन्म मार्गशीर्ष की चतुर्दशी को श्रावस्ती में हुआ था। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कठोर तपस्या के बाद कार्तिक कृष्ण की पंचमी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल पक्ष की पंचमी को सम्मेद शिखर पर आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- अश्व, चैत्यवृक्ष- शाल, यक्ष- त्रिमुख, यक्षिणी- प्रज्ञप्ति।

(4) अभिनंदनजी : चतुर्थ तीर्थंकर अभिनंदनजी की माता का नाम सिद्धार्था देवी और पिता का नाम सन्वर (सम्वर या संवरा राज) है। आपका जन्म माघ शुक्ल की बारस को अयोध्या में हुआ। माघ शुक्ल की बारस को ही आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कठोर तप के बाद पौष शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। बैशाख शुक्ल की छटमी या सप्तमी के दिन सम्मेद शिखर पर आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- बंदर, चैत्यवृक्ष- सरल, यक्ष- यक्षेश्वर, यक्षिणी- व्रजश्रृंखला है।

(5) सुमतिनाथजी : पाँचवें तीर्थंकर सुमतिनाथजी के पिता का नाम मेघरथ या मेघप्रभ तथा माता का नाम सुमंगला था। बैशाख शुक्ल की अष्टमी को साकेतपुरी (अयोध्या) में आपका जन्म हुआ। कुछ विद्वानों अनुसार आपका जन्म चैत्र शुक्ल की एकादशी को हुआ था। बैशाख शुक्ल की नवमी के दिन आपने दीक्षा ग्रहण की तथा चैत्र शुक्ल पक्ष की एकादशी को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल की एकादशी को सम्मेद शिखर पर आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- चकवा, चैत्यवृक्ष- प्रियंगु, यक्ष- तुम्बुरव, यक्षिणी- वज्रांकुशा है।

(6) पद्ममप्रभुजी : छठवें तीर्थंकर पद्मप्रभुजी के पिता का नाम धरण राज और माता का नाम सुसीमा देवी था। कार्तिक कृष्ण पक्ष की द्वादशी को आपका जन्म वत्स कौशाम्बी में हुआ। कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा चैत्र शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के दिन आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- कमल, चैत्यवृक्ष- प्रियंगु, यक्ष-मातंग, यक्षिणी- अप्रति चक्रेश्वरी है।

(7) सुपार्श्वनाथ : सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के पिता का नाम प्रतिस्थसेन तथा माता का नाम पृथ्वी देवी था। आपका जन्म वाराणसी में ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की बारस को हुआ था। ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा फाल्गुन कृष्ण पक्ष की सप्तमि आपको कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की सप्तमी के दिन आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- स्वस्तिक, चैत्यवृक्ष- शिरीष, यक्ष- विजय, यक्षिणी- पुरुषदत्ता है।

(8) चंद्रप्रभु : आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभु के पिता का नाम राजा महासेन तथा माता का नाम सुलक्षणा था। आपका जन्म पौष कृष्ण पक्ष की बारस के दिन चंद्रपुरी में हुआ। पौष कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा फाल्गुन कृष्ण पक्ष सात को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ती हुई। भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- अर्द्धचंद्र, चैत्यवृक्ष- नागवृक्ष, यक्ष- अजित, यक्षिणी- मनोवेगा है।

(9) सुविधिनाथ  : नवें तीर्थंकर पुष्पदंत को सुविधिनाथ भी कहा जाता है। आपके पिता का नाम राजा सुग्रीव राज तथा माता का नाम रमा रानी था, जो इक्ष्वाकू वंश से थी। मार्गशीर्ष के कृष्ण पक्ष की पंचमी को काकांदी में आपका जन्म हुआ। मार्गशीर्ष के कष्णपक्ष की छट (6) को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कार्तिक कृष्ण पक्ष की तृतीय (3) को आपको सम्मेद शिखर में कैवल्य की प्राप्ती हुई। भाद्र के शुक्ल पक्ष की नवमी को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- मकर, चैत्यवृक्ष- अक्ष (बहेड़ा), यक्ष- ब्रह्मा, यक्षिणी- काली है।

(10) शीतलनाथ : दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ के पिता का नाम दृढ़रथ (Dridharatha) और माता का नाम सुनंदा था। आपका जन्म माघ कृष्ण पक्ष की द्वादशी (12) को बद्धिलपुर (Baddhilpur) में हुआ। मघा कृष्ण पक्ष की द्वादशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा पौष कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (14) को आपको कैवल्य ज्ञान की प्राप्ती हुई। बैशाख के कृष्ण पक्ष की दूज को आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- कल्पतरु, चैत्यवृक्ष- धूलि (मालिवृक्ष), यक्ष- ब्रह्मेश्वर, यक्षिणी- ज्वालामालिनी है।

(11) श्रेयांसनाथजी : ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथजी की माता का नाम विष्णुश्री या वेणुश्री था और पिता का नाम विष्णुराज। सिंहपुरी नामक स्थान पर फागुन कृष्ण पक्ष की ग्यारस को आपका जन्म हुआ। श्रावण शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को सम्मेद शिखर (शिखरजी) पर आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- गेंडा, चैत्यवृक्ष- पलाश, यक्ष- कुमार, यक्षिणी- महाकाली है।

(12) वसुपूज्य : बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य प्रभु के पिता का नाम वसुपूज्य (Vasupujya) और माता का नाम विजया था। आपका जन्म फाल्गुन कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (14) को चंपापुरी में हुआ था। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की अमावस्या को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा मघा की दूज (2) को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ती हुई। आषाड़ के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को चंपा में आपको निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- भैंसा, चैत्यवृक्ष- तेंदू, यक्ष- षणमुख, यक्षिणी- गौरी है।

(13) विमलनाथ : तेरहवें तीर्थंकर विमलनाथ के पिता का नाम कृतर्वेम (Kritaverma) तथा माता का नाम श्याम देवी (सुरम्य) था। आपका जन्म मघा शुक्ल तीज को कपिलपुर में हुआ था। मघा शुक्ल पक्ष की तीज को ही आपने दीक्षा ग्रहण की तथा पौष शुक्ल पक्ष की षष्ठी के दिन कैवल्य की प्राप्ति हुई। आषाढ़ शुक्ल की सप्तमी के दिन श्री सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- शूकर, चैत्यवृक्ष- पाटल, यक्ष- पाताल, यक्षिणी- गांधारी।

(14) अनंतनाथजी : चौदहवें तीर्थंकर अनंतनाथजी की माता का नाम सर्वयशा तथा पिता का नाम सिहसेन था। आपका जन्म अयोध्या में वैशाख कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी (13) के दिन हुआ। वैशाख कृष्ण पक्ष चतुर्दशी (14) को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कठोर तप के बाद वैशाख कृष्ण की त्रयोदशी के दिन ही कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। चैत्र शुक्ल की पंचमी के दिन आपको सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- सेही, चैत्यवृक्ष- पीपल, यक्ष- किन्नर, यक्षिणी- वैरोटी है।

(15) धर्मनाथ : पंद्रहवें तीर्थंकर श्री धर्मनाथ के पिता का नाम भानु और माता का नाम सुव्रत था। आपका जन्म मघा शुक्ल की तृतीया (3) को रत्नापुर में हुआ था। मघा शुक्ल की त्रयोदशी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा पौष की पूर्णिमा के दिन आपको कैवल्य की प्राप्ति हुई। ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की पंचमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- वज्र, चैत्यवृक्ष- दधिपर्ण, यक्ष- किंपुरुष, यक्षिणी- सोलसा।

(16) शांतिनाथ : जैन धर्म के सोलहवें तीर्थंकर शांतिनाथ का जन्म ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को हस्तिनापुर में इक्ष्वाकू कुल में हुआ। शांतिनाथ के पिता हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन थे और माता का नाम आर्या (अचीरा) था। आपने ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को दीक्षा ग्रहण की तथा पौष शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन आपको कैवल्य की प्राप्ति हुई। ज्येष्ठ मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- हिरण, चैत्यवृक्ष-नंदी, यक्ष- गरुढ़, यक्षिणी- अनंतमती हैं।

(17) कुंथुनाथजी : सत्रहवें तीर्थंकर कुंथुनाथजी की माता का नाम श्रीकांता देवी (श्रीदेवी) और पिता का नाम राजा सूर्यसेन था। आपका जन्म वैशाख कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को हस्तिनापुर में हुआ था। वैशाख कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन दीक्षा ग्रहण की तथा चैत्र शुक्ल पक्ष की पंचमी को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। वैशाख शुक्ल पक्ष की एकम के दिन सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- छाग, चैत्यवृक्ष- तिलक, यक्ष- गंधर्व, यक्षिणी- मानसी है।

(18) अरहनाथजी : अठारहवें तीर्थंकर अरहनाथजी या अर प्रभु के पिता का नाम सुदर्शन और माता का नाम मित्रसेन देवी था। आपका जन्म मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन ‍हस्तिनापुर में हुआ। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की ग्यारस को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा कार्तिक कृष्ण पक्ष की बारस को कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। मार्गशीर्ष की दशमी के दिन सम्मेद शिखर पर निर्वाण की प्राप्ति हुई। जैन धर्मावलंबियों अनुसार उनका प्रतीक चिह्न- तगरकुसुम (मत्स्य), चैत्यवृक्ष- आम्र, यक्ष- कुबेर, यक्षिणी- महामानसी है।

(19) मल्लिनाथ : उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ के पिता का नाम कुंभराज और माता का नाम प्रभावती (रक्षिता) था। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की ग्यारस को आपका जन्म मिथिला में हुआ था। मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी को दीक्षा ग्रहण की तथा इसी माह की तिथि को कैवल्य की प्राप्ति भी हुई। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की बारस को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- कलश, चैत्यवृक्ष- कंकेली (अशोक), यक्ष- वरुण, यक्षिणी- जया है।

(20) मुनिसुव्रतनाथ : बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के पिता का नाम सुमित्र तथा माता का नाम प्रभावती था। आपका जन्म ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की आठम को राजगढ़ में हुआ था। फाल्गुन कृष्ण पक्ष की बारस को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा फाल्गुन कृष्ण पक्ष की बारस को ही कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष की नवमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- कूर्म, चैत्यवृक्ष- चंपक, यक्ष- भृकुटि, यक्षिणी- विजया।

(21) नमिनाथ : इक्कीसवें तीर्थंकर ‍नमिनाथ के पिता का नाम विजय और माता का नाम सुभद्रा (सुभ्रदा-वप्र)था। आप स्वयं मिथिला के राजा थे। आपका जन्म इक्ष्वाकू कुल में श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मिथिलापुरी में हुआ था। आषाढ़ मास के शुक्ल की अष्टमी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष की एकादशी को कैवल्य की प्राप्ति हुई। वैशाख कृष्ण की दशमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- उत्पल, चैत्यवृक्ष- बकुल, यक्ष- गोमेध, यक्षिणी- अपराजिता।


(22) नेमिनाथ : बावीसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के पिता का नाम राजा समुद्रविजय और माता का नाम शिवादेवी था। आपका जन्म श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी को शौरपुरी (मथुरा) में यादववंश में हुआ था। शौरपुरी (मथुरा) के यादववंशी राजा अंधकवृष्णी के ज्येष्ठ पुत्र समुद्रविजय के पुत्र थे नेमिनाथ। अंधकवृष्णी के सबसे छोटे पुत्र वासुदेव से उत्पन्न हुए भगवान श्रीकृष्ण। इस प्रकार नेमिनाथ और श्रीकृष्ण दोनों चचेरे भाई थे। श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को गिरनार पर्वत पर कैवल्य की प्राप्ति हुई। आषाढ़ शुक्ल की अष्टमी को आपको उज्जैन या गिरनार पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- शंख, चैत्यवृक्ष- मेषश्रृंग, यक्ष- पार्श्व, यक्षिणी- बहुरूपिणी।


(23) पार्श्वनाथ : तेवीसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के पिता का नाम राजा अश्वसेन तथा माता का नाम वामा था। आपका जन्म पौष कृष्ण पक्ष की दशमी को वाराणसी (काशी) में हुआ था। चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा चैत्र कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को ही कैवल्य की प्राप्ति हुई। श्रावण शुक्ल की अष्टमी को सम्मेद शिखर पर निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- सर्प, चैत्यवृक्ष- धव, यक्ष- मातंग, यक्षिणी- कुष्माडी।

(24) महावीर : चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का जन्म नाम वर्धमान, पिता का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम त्रिशला (प्रियंकारिनी) था। आपका जन्म चैत्र शुक्ल की त्रयोदशी के दिन कुंडलपुर में हुआ था। मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की दशमी को आपने दीक्षा ग्रहण की तथा वैशाख शुक्ल की दशमी के दिन कैवल्य की प्राप्ति हुई। 42 वर्ष तक आपने साधक जीवन बिताया। कार्तिक माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या के दिन आपको पावापुरी पर 72 वर्ष में निर्वाण प्राप्त हुआ। जैन धर्मावलंबियों अनुसार आपका प्रतीक चिह्न- सिंह, चैत्यवृक्ष- शाल, यक्ष- गुह्मक, यक्षिणी- पद्मा सिद्धायिनी।

Saturday, March 2, 2013

जैन धर्म (Jain Religion)



‘जैन’ कहते हैं उन्हें, जो ‘जिन’ के अनुयायी हों। ‘जिन’ शब्द बना है ‘जि’ धातु से। ‘जि’ माने-जीतना। ‘जिन’ माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया, वे हैं ‘जिन’। जैन धर्म अर्थात ‘जिन’ भगवान्‌ का धर्म।

जैन धर्म का परम पवित्र और अनादि मूलमंत्र है-

णमो अरिहंताणं 
णमो सिद्धाणं 
णमो आइरियाणं
णमो उवज्झायाणं 
णमो लोए सव्वसाहूणं॥

दीपावली जैन पूजन विधि

  दीपावली जैन पूजन विधि Ø   स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र परिधान पहनकर पूर्व या उत्तर दिशा सन्मुख शुद्ध आसन पर बैठकर आसन के सामने ...