Friday, March 22, 2013

बड़ी साधु वन्दना



लाभ: सरल और स्पष्ट अर्थवाली सुगम भाषा में  पूज्य आचार्य श्री जयमल जी महाराज द्वारा  रचित बड़ी साधु वन्दना श्रद्धा और भक्ति बढ़ाने वाली है । समझपूर्ण, भावविभोर होकर पढ़ने से नरक के बंधन कट जाते हैं। सम्यक्त्व की शुद्धि होती है । देवगति की प्राप्ति होती है । आगामी भव में संयम सुलभ होता है, यावत् उत्कृष्ट रसायन आ जाय तो तीर्थंकर गोत्र का बंध भी हो जाता है । बड़ी साधु वन्दना के पाठ से विष्न नष्ट होते हैं । दुष्ट व्यक्ति दबते हंै । अनेक बाधा पीड़ा मिट जाती है। इसका पुण्य प्रभाव प्रत्यक्ष है ।

विधि: सीधा, ओंधा या टेड़ा किसी भी प्रकार से भूमि में गिरा हुआ बीज उगता है और फल देता है । उसी प्रकार बड़ी साधु वन्दना का भी ‘कभी भी, कैसे भी’ पाठ करें फलदायी है । बड़ी साधु वन्दना के स्मरण के लिये कोई काल का बंधन तथा क्षेत्र का कोई आग्रह नहीं है । सरल मातृभाषा में होने से शब्द अशुद्धि का भी भय नहीं है । अतः भव्यजन भावपूर्वक नित्य पाठ कर लाभान्वित हों ।

नमूं अनंत चैबीसी, ऋषभादिक महावीर ।
इण आर्य क्षेत्र मां, घाली धर्म नी सीर ।।1।।
महाअतुल-बली नर, शूर-वीर ने धीर ।
तीरथ प्रवर्तावी, पहुंचा भव-जल-तीर ।।2।।
सीमंधर प्रमुख, जघन्य तीर्थंकर बीस ।
छै अढ़ी द्वीप मां, जयवंता जगदीश ।।3।।
एक सौ ने सत्तर, उत्कृष्ट पदे जगीश ।
धन्य मोटा प्रभुजी, तेह ने नमाऊँ शीश ।।4।।
केवली दोय कोड़ी, उत्कृष्टा नव कोड़ ।
मुनि दोय सहस कोड़ी, उत्कृष्टा नव सहस कोड़ ।।5।।
विचरे छै विदेहे, मोटा तपसी घोर ।
भावे करि वंदूं, टाले भव नी खोड़ ।।6।।
चैबीसे जिन ना, सगला ही गणधार ।
चैदह सौ ने बावन, ते प्रणमूँ सुखकार ।।7।।
जिनशासन-नायक, धन्य श्री वीर जिनंद ।
गौतमादिक गणधर, वर्तायो आनंद ।।8।।
श्री ऋषभदेव ना, भरतादिक सौ पूत ।
वैराग्य मन आणी, संयम लियो अद्भूत ।।9।।
केवल उपजाव्यूं, कर करणी करतूत ।
जिनमत दीपावी, सगला मोक्ष पहूंत ।।10।।
श्री भरतेश्वर ना, हुआ पटोधर आठ ।
आदित्यजशादिक, पहुंत्या शिवपुर-वाट ।।11।।
श्री जिन-अंतर ना, हुआ पाट असंख ।
मुनि मुक्ति पहुंत्या, टालि कर्म नो वंक ।।12।।
धन्य कपिल मुनिवर, नमी नमूं अणगार ।
जेणे तत्क्षण त्याग्यो, सहस-रमणी-परिवार ।।13।।
मुनि बल हरिकेशी, चित्त मुनीश्वर सार ।
शुद्ध संयम पाली, पाम्या भव नो पार ।।14।।
वलि इखुकार राजा, घर कमलावती नार ।
भग्गू ने जशा, तेहना दोय कुमार ।।15।।
छये छती ऋद्ध छांडी, लीधो संयम-भार ।
इण अल्पकाल मां, पाम्या मोक्ष-द्वार ।।16।।
वलि संयति राजा, हिरण-आहिडे जाय ।
मुनिवर गर्दभाली, आण्यो मारग ठाय ।।17।।
चारित्र लेई ने, भेट्या गुरु ना पाय ।
क्षत्री राज ऋषीश्वर, चर्चा करी चित लाय ।।18।।
वलि दशे चक्रवर्ती, राज्य-रमणी ऋद्धि छोड़ ।
दशे मुक्ति पहुंत्या, कुल ने शोभा च्होड़ ।।19।।
इस अवसर्पिणी काल मां, आठ राम गया मोक्ष ।
बलभद्र मुनीश्वर, गया पंचमे देवलोक ।।20।।
दशार्णभद्र राजा, वीर वांद्या धरि मान ।
पछि इंद्र हटायो, दियो छः काय-अभयदान ।।21।।
करकंडू प्रमुख, चारे प्रत्येक बुद्ध ।
मुनि मुक्ति पहुंत्या, जीत्या कर्म महाजुद्ध ।।22।।
धन्य मोटा मुनिवर, मृगापुत्र जगीश ।
मुनिवर अनाथी, जीत्या राग ने रीश ।।23।।
वलि समुद्रपाल मुनि, राजमती रहनेम ।
केशी ने गौतम, पाम्या शिवपुर-खेम ।।24।।
धन विजयघोष मुनि, जयघोष वलि जाण ।
श्री गर्गाचार्य, पहुंत्या छै निर्वाण ।।25।।
श्री उत्तराध्ययन मां, जिनवर कर्या बखाण ।
शुद्ध मन से ध्यावो, मन में धीरज आण ।।26।।
वलि खंदक संन्यासी, राख्यो गौतम-स्नेह ।
महावीर समीपे, पंच महाव्रत लेह ।।27।।
तप कठिन करीने, झौंसी आपणी देह ।
गया अच्युत देवलोके, चवि लेसे भव-छेह ।।28।।
वलि ऋषभदत्त मुनि, सेठ सुदर्शन सार ।
शिवराज ऋषीश्वर, धन्य गांगेय अणगार ।।29।।
शुद्ध संयम पाली, पाम्या केवल सार ।
ये चारे मुनिवर, पहुंच्या मोक्ष मंझार ।।30।।
भगवंत नी माता, धन-धन सती देवानंदा ।
वलि सती जयंती, छोड़ दिया घर-फंदा ।।31।।
सति मुक्ति पहुंत्या, वलि ते वीर नी नंद ।
महासती सुदर्शना, घणी सतियों ना वृंद ।।32।।
वलि कार्तिक सेठे, पडि़मा वही शूर-वीर ।
जीम्यो मोरां ऊपर, तापस बलती खीर ।।33।।
पछी चारित्र लीधो, मित्र एक सहस आठ धीर ।
मरी हुओ शक्रेन्द्र, चवि लेसे भव-तीर ।।33।।
वलि राय उदायन, दियो भाणेज ने राज ।
पछी चारित्र लेईने, सार्या आतम-काज ।।35।।
गंगदत्त मुनि आनंद, तारण-तरण जहाज ।
मुनि कौशल रोहो, दियो घणां ने साज ।।36।।
धन्य सुनक्षत्र मुनिवर, सर्वानुभूति अणगार ।
आराधक हुई ने, गया देवलोक मझार ।।37।।
चवि मुक्ति जासे, वलि सिंह मुनीश्वर सार ।
बीजा पण मुनिवर, भगवती मां अधिकार ।।38।।
श्रेणिक नो बेटो, मोटो मुनिवर मेघ ।
तजी आठ अंतेउरी, आण्यो मन संवेग ।।39।।
वीर पै व्रत लेई ने, बांधी तप नी तेग ।
गया विजय विमाने, चवि लेसे शिव-वेग ।।40।।
धन्य थावच्चा पुत्र, तजी बतीसो नार ।
तेनी साथे निकल्या, पुरुष एक हजार ।।41।।
शुकदेव संन्यासी, एक सहस शिष्य लार ।
पांच-सौ से शेलक, लीधो संयम-भार ।।42।।
सब सहस अढ़ाई, घणा जीवों ने तार ।
पुंडरिकगिरि ऊपर, कियो पादोपगमन संथार ।।43।।
आराधक हुई ने, कीधो खेवो पार ।
हुआ मोटा मुनिवर, नाम लियां निस्तार ।।44।।
धन्य जिनपाल मुनिवर, दोय धन्ना हुआ साध ।
गया प्रथम देवलोके, मोक्ष जासे आराध ।।45।।
श्री मल्लीनाथ ना छह मित्र, महाबल प्रमुख मुनिराय ।
सर्वे मुक्ति सिधाव्या, मोटी पदवी पाय ।।46।।
वलि जितशत्रु राजा, सुबुद्धि नामे प्रधान ।
पोते चारित्र लई ने, पाम्या मोक्ष-निधान ।।47।।
धन्य तेतली मुनिवर, दियो छ काय अभयदान ।
पोटिला प्रतिबोध्या, पाम्या केवलज्ञान ।।48।।
धन्य पांचे पांडव, तजी द्रौपदी नार ।
थेवरां नी पासे, लीधो संयम-भार ।।49।।
श्री नेमि वंदन नो, एहवो अभिग्रह कीध ।
मास-मासखमण तप, शत्रुंजय जई सिद्ध ।।50।।
धर्मघोष तणा शिष्य, धर्मरुचि अणगार ।
कीडि़यों नी करुणा, आणी दया अपार ।।51।।
कड़वा तूँबा नो, कीधो सगलो आहार ।
सर्वार्थसिद्ध पहुंत्या, चवि लेसे भव-पार ।।52।।
वलि पुंडरिक राजा, कुंडरिक डिगियो जाण ।
पोते चारित्र लेई ने, न घाली धर्म मां हाण ।।53।।
सर्वार्थसिद्ध पहुंत्या, चवि लेसे निर्वाण ।
श्री ज्ञातासूत्र मां, जिनवर कर्या बखाण ।।54।।
गौतमादिक कुंवर, सगा अठारे भ्रात ।
सब अंधकविष्णु-सुत, धारिणी ज्यांरी मात ।।55।।
तजी आठ अंतेउर, काढ़ी दीक्षा नी बात ।
चारित्र लेई ने, कीधो मुक्ति नो साथ ।।56।।
श्री अनीकसेनादिक, छहे सहोदर भाय ।
वसुदेव ना नंदन, देवकी ज्यांरी माय ।।57।।
भद्दिलपुर नगरी, नाग गाहावई जाण ।
सुलसा-घर वधिया, सांभली नेम नी वाण ।।58।।
तजी बत्तीस-बत्तीस अंतेउर, निकलिया छिटकाय ।
नल कूबेर समाना, भेट्या श्री नेमि ना पाय ।।59।।
करी छठ-छठ पारणा, मन में वैराग्य लाय ।
एक मास संथारे, मुक्ति विराज्या जाय ।।60।।
वलि दारुक सारण, सुमुख-दुमुख मुनिराय ।
वलि कुंवर अनाधृष्ट, गया मुक्ति-गढ़ मांय ।।61।।
वसुदेव ना नंदन, धन-धन गजसुकुमाल ।
रूपे अति सुंदर, कलावन्त वय बाल ।।62।।
श्री नेमी समीपे, छोड्यो मोह-जंजाल ।
भिक्षु नी पडि़मा, गया मसाण महाकाल ।।63।।
देखी सोमिल कोप्यो, मस्तक बांधी पाल ।
खेरा नां खीरा, शिर ठविया असराल ।।64।।
मुनि नजर न खंडी, मेटी मन नी झाल ।
परीषह सही ने, मुक्ति गया तत्काल ।।65।।
धन जाली मयाली, उवयाली आदि साध ।
शांब ने प्रद्युम्न, अनिरुध साधु अगाध ।।66।।
वलि सतनेमि, दृढ़नेमि, करणी कीधी निर्बाध ।
दशे मुक्ति पहुंत्या, जिनवर-वचन आराध ।।67।।
धन अर्जुनमाली, कियो कदाग्रह दूर ।
वीर पै व्रत लई ने, सत्यवादी हुआ शूर ।।68।।
करी छठ-छठ पारणा, क्षमा करी भरपूर ।
छह मासां मांही, कर्म किया चकचूर ।।69।।
कुँवर अइमुत्ते, दीठा गौतम स्वाम ।
सुणि वीर नी वाणी, कीधो उत्तम काम ।।70।।
चारित्र लेई ने, पहुंत्या शिवपुर-ठाम ।
धुर आदि मकाई, अन्त अलक्ष मुनि नाम ।।71।।
वलि कृष्णराय नी, अग्रमहिषी आठ ।
पुत्र-बहु दोय, संच्या पुण्य ना ठाठ ।।72।।
जादव-कुल सतियां, टाल्यो दुःख उचाट ।
पहुंची शिवपुर मां, ए छे सूत्र नो पाठ ।।73।।
श्रेणिक नी राणी, काली आदिक दश जाण ।
दशे पुत्र-वियोगे, सांभली वीर नी वाण ।।74।।
चंदनबाला पै, संयम लेई हुई जाण ।
तप कर देह झौंसी, पहुंची छै निर्वाण ।।75।।
नंदादिक तेरह, श्रेणिक नृप नी नार ।
सगली चंदनबाला पै, लीधो संयम-भार ।।76।।
एक मास संथारे, पहुंची मुक्ति मंझार ।
ए नेवुं जणा नो, अंतगड मां अधिकार ।।77।।
श्रेणिक ना बेटा, जाली आदिक तेवीस ।
वीर पै व्रत लेई ने, पाल्यो विसवावीस ।।78।।
तप कठिन करी ने, पूरी मन जगीश ।
देवलोके पहुंत्या, मोक्ष जासे तजी रीश ।।79।।
काकन्दी नो धन्नो, तजी बत्तीसे नार ।
महावीर समीपे, लीधो संयम भार ।।80।।
करी छठ-छठ पारणा, आयंबिल उज्झित आहार ।
श्री वीर बखाण्यो, धन धन्नो अणगार ।।81।।
एक मास संथारे, सर्वार्थसिद्ध पहुंत ।
महाविदेह क्षेत्र मां, करसे भवनो अंत ।।82।।
धन्ना नी रीते, हुआ नव ही संत ।
श्री अनुत्तरोववाई मां, भाखि गया भगवंत ।।83।।
सुबाहु प्रमुख, पांच-पांच सौ नार ।
तजी वीर पे लीधा, पांच महाव्रत सार ।।84।।
चारित्र लेई ने, पाल्यो निर् अतिचार ।
देवलोक पहुंच्या, सुखविपाके अधिकार ।।85।।
श्रेणिक ना पोता, पउमादिक हुआ दस ।
वीर पै व्रत लेई ने, काढ़्यो देह नो कस ।।86।।
संयम आराधी, देवलोक मां जई बस ।
महाविदेह क्षेत्र मां, मोक्ष जासे लेई जस ।।87।।
बलभद्र ना नन्दन, निषधादिक हुआ बार ।
तजी पचास अंतेउरी, त्याग दियो संसार ।।88।।
सहु नेमि समीपे, चार महाव्रत लीध ।
सर्वार्थसिद्ध पहुंच्या, होसे विदेहे सिद्ध ।।89।।
धन्ना ने शालिभद्र, मुनीश्वरों नी जोड़ ।
नारी ना बंधन, तत्क्षण नांख्या तोड़ ।।90।।
घर-कुटुम्ब-कबीलो, धन-कंचन नी कोड़ ।
मास-मासखमण तप, टालसे भव नी खोड़ ।।91।।
श्री सुधर्मा ना शिष्य, धन-धन जंबू स्वाम ।
तजी आठ अंतेउरी, मात-पिता धन-धाम ।।92।।
प्रभवादिक तारी, पहुंत्या शिवपुर-ठाम ।
सूत्र प्रवर्तावी, जग मां राख्यूं नाम ।।93।।
धन ढंढण मुनिवर, कृष्णराय ना नंद ।
शुद्ध अभिग्रह पाली, टाल दियो भव-फंद ।।94।।
वलि खंदक ऋषि नी, देह उतारी खाल ।
परीषह सही ने, भव-फेरा दिया टाल ।।95।।
वलि खंदक ऋषि ना, हुआ पांचसौ शीश ।
घाणी मां पील्या, मुक्ति गया तज रीश ।।96।।
संभूतिविजय-शिष्य, भद्रबाहु मुनिराय ।
चैदह पूर्वधारी, चंद्रगुप्त आण्यो ठाय ।।97।।
वलि आद्र्रकुंवर मुनि, स्थूलभद्र नंदिषेण ।
अरणक अइमुत्तो, मुनीश्वरों नी श्रेण ।।98।।
चैबीसे जिन ना मुनिवर, संख्या अठावीश लाख ।
ऊपर सहस अड़तालीस, सूत्र परंपरा भाख ।।99।।
कोई उत्तम वांचो, मोंढे जयणा राख ।
उघाड़े मुख बोल्यां, पाप लगे इम भाख ।।100।।
धन्य मरुदेवी माता, ध्यायो निर्मल ध्यान ।
गज-होदे पायो, निर्मल केवल ज्ञान ।।101।।
धन आदीश्वर नी पुत्री, ब्राह्मी सुन्दरी दोय ।
चारित्र लेई ने, मुक्ति गई सिद्ध होय ।।102।।
चैबीसे जिन नी, बड़ी शिष्यणी चैबीस ।
सती मुक्ति पहुंच्या, पूरी मन जगीश ।।103।।
चैबीसे जिन ना, सर्व साधवी सार ।
अड़तालीस लाख ने, आठ से सत्तर हजार ।।104।।
चेड़ा नी पुत्री, राखी धर्म नी प्रीत ।
राजीमती विजया, मृगावती सुविनीत ।।105।।
पद्मावती मयणरेहा, द्रौपदी दमयंती सीत ।
इत्यादिक सतियां, गई जमारो जीत ।।106।।
चैबीसे जिन नां, साधु-साधवी सार ।
गया मोक्ष देवलोके, हृदय राखो धार ।।107।।
इण अढ़ी द्वीप मां, घरड़ा तपसी बाल ।
शुद्ध पंच महाव्रत धारी, नमो-नमो तिहुं काल ।।108।।
इण यतियों सतियों ना, लीजे नित प्रति नाम ।
शुद्ध मन थी ध्यावो, एह तिरण नो ठाम ।।109।।
इण यतियों सतियों सूं, राखो उज्ज्वल भाव ।
इम कहे ऋषि ‘जयमल’ एह तिरण नो दाव ।।110।।
संवत् अठारा ने, वर्ष साते सिरदार ।
गढ़ जालोर मांही, एह कह्यो अधिकार ।।111।।

1 comment:

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