Monday, August 8, 2016

Shri Neminath Bhagwaan Story - 22 वें जैन तीर्थंकर श्री नेमीनाथ भगवान की कथा

सौर्यपुर के अन्धकवृष्णि राजा के दस दशार्ह पुत्रों में वसुदेव तथा समुद्रविजय मुख्य थे।
वसुदेव के दो रानियाँ थीं-एक
रोहिणी और दूसरी देवकी। पहली से बलदेव और दूसरी से कृष्ण का जन्म हुआ। समुद्रविजय की रानी का नाम शिवा था, जिसने नेमि को जन्म दिया।

जैन धर्म के बाइसवें तीर्थंकर भगवान श्री नेमिनाथ जी का जन्म सौरीपुर द्वारका के हरिवंश कुल में श्रावण माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को चित्रा नक्षत्र में हुआ था
इनके शरीर का रंग श्याम वर्ण था जबकि चिन्ह शंख था. इनके यक्ष का नाम गोमेध और यक्षिणी का नाम अम्बिका देवी था. जैन धर्मावलम्बियों के अनुसार भगवान श्री नेमिनाथ जी के गणधरों की कुल संख्या 11 थी, जिनमें वरदत्त स्वामी इनके प्रथम गणधर थे. इनके प्रथम आर्य का नाम यक्षदिन्ना था.
जब नेमिकुमार आठ वर्ष के हुए तो कृष्ण द्वारा कंस का वध किये जाने पर जरासन्ध को यादवों पर बहुत क्रोध आया। उसके भय से यादव पश्चिम समुद्र तट पर स्थित द्वारका नगरी में जाकर रहने लगे। कुछ समय पश्चात् कृष्ण और बलदेव ने जरासन्ध का वध
किया और वे आधे भारतवर्ष के स्वामी हो गये।नेमिकुमार जब बड़े हुए तो एक बार खेलते-खेलते वे कृष्ण की आयुधशाला में पहुँचे, और वहाँ रखे हुए
धनुष को उठाने लगे। आयुधपाल ने कहा, ‘‘कुमार,आप क्यों व्यर्थ ही इसे उठाने का प्रयत्न करते हैं?कृष्ण को छोड़कर अन्य कोई पुरुष इस धनुष
को नहीं उठा सकता।’’ परन्तु नेमिकुमार ने आयुधपाल के कहने की कोई परवाह न की। उन्होंने बात की बात में धनुष को उठाकर उस पर बाण चढ़ा दिया, जिससे सारी पृथ्वी काँप उठी।
तत्पश्चात् उन्होंने पांचजन्य शंख फूँका, जिससे समस्त संसार काँप गया।
आयुधपाल ने तुरन्त कृष्ण से जाकर कहा। कृष्ण ने सोचा कि जिसमें इतना बल है वह बड़ा होकर मेरा राज्य भी छीन सकता है, अतएव इसका कोई
उपाय करना चाहिए। 

कृष्ण ने यह बात अपने भाई बलदेव से कही। बलदेव ने उत्तर दिया, ‘‘देखो,नेमिकुमार बाईसवें तीर्थंकर होनेवाले हैं, और तुम नौवें वासुदेव। नेमि बिना राज्य किये
ही संसार का त्याग कर दीक्षा ग्रहण करेंगे,अतएव डर की कोई बात नहीं है।’’ परन्तु कृष्ण की शंका दूर न हुई।
एक बार की बात है, नेमिकुमार और कृष्ण दोनों उद्यान में गये हुए थे। कृष्ण ने उनके साथ बाहुयुद्ध करना चाहा। नेमि ने अपनी बायीं भुजा फैला दी और कृष्ण से कहा कि यदि तुम इसे मोड़ दो तो तुम जीते।परन्तु कृष्ण उसे जरा भी न हिला सके।
नेमिकुमार अब युवा हो गये थे। समुद्रविजय आदि राजाओं ने कृष्ण से कहा कि देखो,नेमि सांसारिक विषय-भोगों की ओर से उदासीन मालूम होते हैं, अतएव कोई ऐसा उपाय
करो जिससे ये विषयों की ओर झुकें । कृष्ण ने रुक्मिणी, सत्यभामा आदि अपनी रानियों से यह बात कही। रानियों ने नेमि को अनेक उपायों से लुभाने की चेष्टा की, परन्तु कोई असर
न हुआ।कुछ समय बाद कृष्ण के बहुत अनुरोध करने पर नेमिकुमार ने विवाह की स्वीकृति दे दी।उग्रसेन राजा की कन्या राजीमती से उनके विवाह की बात पक्की हो गयी। 

फिर क्या,विवाह की धूमधाम से तैयारियाँ होने लगीं।नेमिकुमार कृष्ण, बलदेव आदि को साथ लेकर हाथी पर सवार हो विवाह के लिए आये। बाजे बज रहे थे, शंख-ध्वनि हो रही थी, मंगलगान गाये
जा रहे थे और जय-जय शब्दों का नाद सुनाई दे रहा था। नेमिकुमार महाविभूति के साथ विवाह-मण्डप के नजदीक पहुँचे। दूर से ही नेमि के सुन्दर रूप को देखकर राजीमती के हर्ष का पारावार न रहा।इतने में नेमिकुमार के कानों में करुण शब्द सुनाई पड़ा। पूछने पर उनके सारथी ने कहा,‘महाराज, आपके विवाह की खुशी में बाराती लोगों को मांस खिलाया जाएगा।यह शब्द बाड़े में बन्द पशुओं का है।’’नेमिकुमार सोचने लगे, ‘‘इन निरपराध प्राणियों को मारकर खाने में कौन-सा सुख है?’’ यह सोचकर उनके हृदय-कपाट खुल गये, उन्हें संसार से विरक्ति हो गयी।
अपने सारथी से कहकर उन्होने सभी पशुओं को मुक्त कराया । मुक्ति के पथिक ने स्वयं की मुक्ति से पूर्व उन मूक पशुओं को मुक्त करवाकर अपना संदेश स्पष्ट कर दिया । 


उन्होंने एकदम अपना हाथी लौटा दिया।घर जाकर उन्होंने अपने माता-
पिता की आज्ञापूर्वक दीक्षा ले ली और साधु बनकर रैवतक पर्वत (गिरनार-जूनागढ़) पर वे तप करने लगे।
. भगवान श्री नेमिनाथ ने सौरीपुर में श्रावण शुक्ला पक्ष षष्ठी को दीक्षा की प्राप्ति की थी और दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 2 दिन बाद खीर से इन्होनें प्रथम पारणा किया था. भगवान श्री नेमिनाथ जी ने दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् 54 दिनों तक कठोर तप करने के बाद गिरनार पर्वत पर मेषश्रृंग वृक्ष के नीचे आसोज अमावस्या को कैवल्यज्ञान को प्राप्त किया था

जब राजीमती को मालूम हुआ
कि नेमिनाथ ने दीक्षा ग्रहण कर ली है, तो उसे अत्यन्त आघात पहुँचा। उसने बहुत विलाप किया,परन्तु उसने सोचा कि इससे कुछ न होगा। अन्त में
उसने अपने स्वामी के अनुगमन करने का दृढ़ निश्चय कर लिया।नेमिनाथ के भाई रथनेमि को पता चला कि राजीमती भी दीक्षा की तैयारी कर रही है तो वे उसके पास जाकर उसे समझाने लगे -
‘‘
भाभी, नेमि तो वीतराग हो गये हैं, अतएव उनकी आशा करना व्यर्थ है। क्यों न तुम मुझसे विवाह कर लो?’’ राजीमती ने कहा, ‘‘मैं नेमिनाथ की अनुगामिनी बनने का दृढ़ संकल्प कर
चुकी हूँ, उससे मुझे कोई नहीं डिगा सकता।’’एक दिन रथनेमि ने फिर वही प्रसंग छेड़ा। इस पर राजीमती ने उसके सामने खीर खाकर ऊपर से मदनफल खा लिया, जिससे उसे तुरन्त वमन
हो गया। इस वमन को राजीमती ने सोने के एक पात्र में ले उसे अपने देवर के सामने रखकर उसे भक्षण करने को कहा। उसने उत्तर दिया - भाभी, वमन
की हुई वस्तु मैं कैसे खा सकता हूँ?
राजीमती - क्या तुम इतना समझते हो?
रथनेमि - यह बात तो एक बालक
भी जानता है।राजीमती - यदि ऐसी बात है तो फिर तुम मेरी कामना क्यों करते हो? मैं भी तो परित्यक्ता हूँ।
राजीमती ने रैवतक पर्वत पर जाकर भगवान नेमिनाथ के पास दीक्षा ले ली।
कुछ समय बाद रथनेमि ने भी दीक्षा ग्रहण कर ली, और वे साधु होकर उसी पर्वत पर विहार करने लगे।
एक बार की बात है। राजीमती अन्य
साध्वियों के साथ रैवतक पर विहार कर रही थी। इतने में बड़े जोर की वर्षा होने लगी।सभी साध्वियाँ पास की गुफाओं में चली गयीं। राजीमती भी एक सूनी गुफा में आकर खड़ी हो गयी।
संयोगवश रथनेमि साधु भी उसी गुफा में खड़े होकर तप कर रहे थे। अँधेरे में राजीमती ने उन्हें नहीं देखा। वह वर्षा से भीगे हुए वस्त्र उतारकर सुखाने लगी।
राजीमती को इस अवस्था में देखकर
रथनेमि के हृदय में फिर से खलबली मच गयी। उसने राजीमती से प्रेम की याचना की। परन्तु राजीमती का मन डोलायमान न हुआ। वह स्वयं संयम में दृढ़ रही और अपने उपदेशों द्वारा उसने
रथनेमि को संयम में दृढ़ कर दिया।


700 साल तक साधक जीवन जीने के बाद आषाढ़ शुक्ल अष्टमी को भगवान श्री नेमिनाथ जी ने एक हज़ार साधुओं के साथ गिरनार पर्वत पर निर्वाण को प्राप्त किया था.

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Friday, August 5, 2016

णमोकार महामंत्र- जानकारी

णमोकार महामंत्र- जानकारी
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"णमो अरिहंताणं,
णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं,
णमो उव्वझायाणं,
णमो लोए सव्व साहूणं "


यह प्राकृत भाषा में महामंत्र है! इसके प्रत्येक शब्द का मात्रा सहित शुद्ध उच्चारण करना चाहिए अन्यथा मन्त्र का पूर्ण लाभ नहीं प्राप्त होगा ! इस मन्त्र में ३५ अक्षर और ५८ मात्राये हैं। कुछ लोग इसमें प्रत्येक के साथ ॐ लगा देते है जो कि अनुचित है क्योकि इससे अक्षर की संख्या ३५ से अधिक हो जाती है। पुण्यार्जन हेतु गलत नहीं है बस व्याकरण की दृष्टि से।
इस महामंत्र में ,प्रथम पद -णमो अरिहंताणं,णमो अरहंताणं,णमो अरूहंताणं, ३ तरह से बोला जाता है।
णमो अरिहंताणं- घातिया कर्म शत्रुओ को नाश करने वाले,
णमो अरहंताणं-तीनो लोको मे सबके द्वारा पूज्य, 
णमो अरूहंताणं -जिनका जन्म मरण नष्ट हो गया ,जो पुनः उत्पन्न नही होगे।
तीनो शब्द-अर्थ ठीक है कोई भी बोल सकते है किन्तु मूल षट्खंङागम के मंगलाचरण मे, लगभग १८००-१९००-वर्ष पूर्व,सर्वप्रथम आ.पुष्प दंत जी ने लिपिबद्ध करते हुए णमो अरिहंताणं लिखा है ,इसलिये यह पद मूल है। प्राथमिकताइसी पद को ही देनी चाहिए।
णमो अरिहंताणं और णमो अरहंताणं के बोलने से मात्राओ मे अन्तर नही पड़ता।क्योकि दोनो लघु है,दीर्घ नही।


इस मंत्र को आचार्यो के अनुसार १८४३२ तरह से पढ़ सकते है।
इस मंत्र से शास्त्रो के अनुसार ८४ लाख मंत्रो की रचना हुई है।
पंच परमेष्ठी अनादिकाल से है इसलिए उनका नमस्कार अनादिकाल से किसी न किसी रूप मे है।णमोकार मंत्र, जो वर्तमान मे है,यह तो ईसा की दूसरी शताब्दी मे ग्रंथराज षट्खंडागम के मंगलाचरण के रूप मे निबद्ध किया गया है।इसका प्रमाण,खंडगिरी और उदयगिरी की खारवेल महाराज की हाथी गुफा के ऊपर एक शिलालेख मे णमो अरिहंताणं और णमो सव्व सिद्धाणं लिखा है।सम्भवतः पहले णमोकार मंत्र इस रूप मे पढ़ा जाता हो।


मन्त्र का अर्थ -
णमो अरिहंताणं -अरिहंतो अर्थात जिनके चार घातिया कर्म नष्ट हो गए हो उन को नमस्कार हो !
णमो सिद्धाणं-सिद्धो,मोक्ष मे विराजमान भगवानको नमस्कार हो,
णमो आयरियाणं-आचार्य भगवन्तो को नमस्कार हो,
णमो उव्वझायाणं-उपाध्यायो परमेष्ठी को नमस्कार हो,
णमो लोएसव्वसाहूणं- लोक मे सब साधु परमेष्ठी को नमस्कार हो।
लोक मे सभी पाचो पदो के साथ लगा सकते है
ॐ की रचना पंच परमेष्ठियों के पहले अक्षर को लेकर करी गई है अरिहंत मे से अ,-सिद्धो को अशरीरि कहते है,यहा से अ लिया,अ +अ=आ,आयरियाणं-आचार्यो मे से आ लिया,आ+आ=आ,उव्वझायाणं-उपाध्याय का उ लिया आ+उ =ओ,मुनियो का म लिया,अ+अ+आ+उ+म =ॐ।ॐ नमः बोलने से अरिहंत,सिद्ध,आचार्य , उपाध्याय,साधु परमेष्ठि को नमस्कार हो।


इस मन्त्र का ९ बार इसलिए जपते है जिससे,मन वचन,काय और कृत,कारित,अनुमोदन ,इन ९ प्रकार से जो पाप हुए है वे नष्ट हो जाए!मुनिमहाराज जी कायोत्सर्ग करते हुए ९ बार णमोकार मन्त्र इसीलिए बोलते है जिससे उनके मन,वचन,काय से कृत,कारित,अनुमोदन से हुए पाप क्षय को प्राप्त हो! 
ये मन्त्र १०८ब़ार इसलिए जपते है क्योकि यह जीव १०८ प्रकार्रों से जीवाधिकरण नाम का आस्रव करता है! अर्थात जीव के १०८ परिणामों से कर्म आते है,इन आठ तरह से वह पाप करता है ! संरम्भ,समारंभ,आरम्भ इन तीन को गुणा मन ,वचन,काय- तीन से,९ हो गए कृत,कारित,अनुमोदन -तीन से गुणा करने पर२७ हो गए! इसे क्रोध,मान,माया,लोभ-४ से गुणा किया १०८ हो गए!इन १०८ प्रकार के आस्रव नहीं हो,इसलिए १०८ ब़ार णमोकार मन्त्र का जाप करते है!
णमोकार मन्त्र का जाप, यदि अँगुलियों से करते है तो बीच की अंगुली के मध्य पर्व से आरम्भ कर घड़ी की सुई की दिशा मे चलते हुए एक एक पर्व पर चलते हुए तीसरी अंगुली के अंतिम पर्व पर आने से ९ ब़ार हो जायेगे!सीधे हाथ की अंगुलियो पर क्रमश १ से १२ तक,प्रत्येक ९ बार का चक्र होने पर,१ पर्व गिनते हुए १२ वे पर्व तक पहुंच कर १०८ बार की माला का जापपूर्ण कर लेगे।


माला लेकर जाप के लिए पद्मासन मे बैठते है या खड़े होकर जाप करते है तब सीधा हाथ नाभि से ऊपर होना चाहिए और माला दूसरे उल्टे हाथ मे ठीक पहले हथ की हथेली के ऊपर सीधी होनी चाहिए।
उच्चारण करने की २ विधि है 
१-अन्तर्जप-जब मन ही मन उच्चारण करते है।
२-बाह्यजप -पूर्ण बोलकर उच्चारण पूर्वक करते है।
मन्त्र का शुद्ध उच्चारण सही गति से करना चाहिए, हीनाधिक गति से नही।


माला मे ऊपर के ३ दाने सम्यग्दर्शन,सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के लिये होते है जिन्हे जाप शुरू करने पर बोलते है ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनाय नमः,ॐ ह्रीं सम्यक्ज्ञानाय नमः,ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्राय नमः।माला १०८ बार पूर्ण करने के बाद पुनः ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनाय नमः,ॐ ह्रीं सम्यक्ज्ञानाय नमः,ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्राय नमःबोले।


जाप लेते समय मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर होना चाहिए।वस्त्र शुद्ध होने चाहिए।मन संकल्पो विकल्पो से रहित,किसी प्रकार की कषाय रहित शुद्ध होना चाहिए।वचन की शुद्धि ,मंत्र का उच्चारण शुद्ध करे,कोई भी मात्रा या अक्षर हीनाधिक नही होना चाहिए। काय की शुद्धि-वस्त्रो,शरीर की शुद्ध होनी चाहिए।जाप,निश्चिंत होकर, मन की स्थिरता के साथ शांत,कोलाहल्ल रहित वातावरण मे,जैसे प्रातःकाल ४ बजे करनी चाहिए।
जब णमो अरिहंताणं बोले तब अरिहंत परमेष्ठि का चिंतवन करे ,इसी तरह अन्य सभी परमेष्ठियो का चिंतवन क्रमशः उनका उच्चारण करते हुए करे।


णमोकार मंत्र की जाप का फल-
१- जितने समय हम जाप जपते है उतने समय के लिए पाप कर्मो के आस्रव-बंध से बचते है!
२-परिणामों मे विशुद्धि आने से पुण्य का बंध होता है!
३- महान आचार्यों ने लिखा है की णमो कार मन्त्र का जप करने से कर्मों की महान निर्जरा होती है!
शर्त है की जाप सही स्थान पर,सही भाव से,श्रद्धा और भक्ति के साथ सही तरीके से करी हो जिससे सातिशय पुण्यकर्म का बंध होता है और कर्मों की निर्जरा होती है 
एक बुज़ुर्ग ,कापी पर णमोकार मन्त्र दिन भर लिखते रहते थे और जो कापिया भर जाती वे प्रकाशक णमोकार बैंक में भेज देते थे ! यह भी एक तरीका है अपने कर्मों की निर्जरा करने का! और अपने को सही उपयोग में लगाने का! वे इस प्रकार नाती पोतियों के राग द्वेष से अपने को बचा लेते थे !
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By - Rupesh Jain
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Monday, August 1, 2016

24 Tirthankar - तीर्थंकर नाम चिन्ह जन्म स्थान

तीर्थंकर नाम चिन्ह जन्म स्थान


श्री ऋषभनाथ जी - बैल अयोध्या
श्री अजितनाथ जी - हाथी अयोध्या
श्री संभवनाथ जी - घोड़ा सावत्थी
श्री अभिनन्दन जी - बंदर अयोध्या
श्री सुमतिनाथ जी - पक्षी अयोध्या
श्री पद्मप्रभु जी - कमल कौसाम्बी
श्री सुपार्श्वनाथ जी - स्वस्तिक वाराणसी
श्री चंद्रप्रभु जी - चन्द्रमा चन्द्रपुरी
श्री सुविधिनाथजी - मगरमच्छ काकंदिपुर
(
पुष्पदंतजी)
१० श्री शीतलनाथ जी - कल्प वृक्ष भद्रिलपुर
११ श्री श्रेयांसनाथ जी - गेंडा सिंहपुर
१२ श्री वासपुज्य जी - भैंसा चम्पापुरी
१३ श्री विमलनाथ जी - शूकर कम्पिला
१४ श्री अनन्तनाथ जी - सेही अयोध्या
१५ श्री धर्मनाथ जी - वज्र रत्नपुर
१६ श्री शांतिनाथ जी - हिरण हस्तिनापुर
१७ श्री कुथुनाथ जी - बकरा हस्तिनापुर
१८ श्री अरनाथ जी - मछली हस्तिनापुर
१९ श्री मल्लिनाथ जी - कलश मिथिलापुरी
२० श्री मुनिस्रुवत जी - कछुआ राजगृही
२१ श्री नमिनाथ जी - नीलकमल मिथिलापुरी
२२ श्री नेमिनाथ जी - शंख सौरिपुर
२३ श्री पार्श्व नाथ जी - सर्प वाराणसी
२४ श्री महावीर स्वामीजी - सिंह क्षत्रिय कुंड

दीपावली जैन पूजन विधि

  दीपावली जैन पूजन विधि Ø   स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र परिधान पहनकर पूर्व या उत्तर दिशा सन्मुख शुद्ध आसन पर बैठकर आसन के सामने ...