णमोकार महामंत्र- जानकारी
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"णमो अरिहंताणं,
णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं,
णमो उव्वझायाणं,
णमो लोए सव्व साहूणं "
यह प्राकृत भाषा में महामंत्र है! इसके प्रत्येक शब्द का मात्रा सहित शुद्ध उच्चारण करना चाहिए अन्यथा मन्त्र का पूर्ण लाभ नहीं प्राप्त होगा ! इस मन्त्र में ३५ अक्षर और ५८ मात्राये हैं। कुछ लोग इसमें प्रत्येक के साथ ॐ लगा देते है जो कि अनुचित है क्योकि इससे अक्षर की संख्या ३५ से अधिक हो जाती है। पुण्यार्जन हेतु गलत नहीं है बस व्याकरण की दृष्टि से।
इस महामंत्र में ,प्रथम पद -णमो अरिहंताणं,णमो अरहंताणं,णमो अरूहंताणं, ३ तरह से बोला जाता है।
णमो अरिहंताणं- घातिया कर्म शत्रुओ को नाश करने वाले,
णमो अरहंताणं-तीनो लोको मे सबके द्वारा पूज्य,
णमो अरूहंताणं -जिनका जन्म मरण नष्ट हो गया ,जो पुनः उत्पन्न नही होगे।
तीनो शब्द-अर्थ ठीक है कोई भी बोल सकते है किन्तु मूल षट्खंङागम के मंगलाचरण मे, लगभग १८००-१९००-वर्ष पूर्व,सर्वप्रथम आ.पुष्प दंत जी ने लिपिबद्ध करते हुए णमो अरिहंताणं लिखा है ,इसलिये यह पद मूल है। प्राथमिकताइसी पद को ही देनी चाहिए।
णमो अरिहंताणं और णमो अरहंताणं के बोलने से मात्राओ मे अन्तर नही पड़ता।क्योकि दोनो लघु है,दीर्घ नही।
इस मंत्र को आचार्यो के अनुसार १८४३२ तरह से पढ़ सकते है।
इस मंत्र से शास्त्रो के अनुसार ८४ लाख मंत्रो की रचना हुई है।
पंच परमेष्ठी अनादिकाल से है इसलिए उनका नमस्कार अनादिकाल से किसी न किसी रूप मे है।णमोकार मंत्र, जो वर्तमान मे है,यह तो ईसा की दूसरी शताब्दी मे ग्रंथराज षट्खंडागम के मंगलाचरण के रूप मे निबद्ध किया गया है।इसका प्रमाण,खंडगिरी और उदयगिरी की खारवेल महाराज की हाथी गुफा के ऊपर एक शिलालेख मे णमो अरिहंताणं और णमो सव्व सिद्धाणं लिखा है।सम्भवतः पहले णमोकार मंत्र इस रूप मे पढ़ा जाता हो।
मन्त्र का अर्थ -
णमो अरिहंताणं -अरिहंतो अर्थात जिनके चार घातिया कर्म नष्ट हो गए हो उन को नमस्कार हो !
णमो सिद्धाणं-सिद्धो,मोक्ष मे विराजमान भगवानको नमस्कार हो,
णमो आयरियाणं-आचार्य भगवन्तो को नमस्कार हो,
णमो उव्वझायाणं-उपाध्यायो परमेष्ठी को नमस्कार हो,
णमो लोएसव्वसाहूणं- लोक मे सब साधु परमेष्ठी को नमस्कार हो।
लोक मे सभी पाचो पदो के साथ लगा सकते है
ॐ की रचना पंच परमेष्ठियों के पहले अक्षर को लेकर करी गई है अरिहंत मे से अ,-सिद्धो को अशरीरि कहते है,यहा से अ लिया,अ +अ=आ,आयरियाणं-आचार्यो मे से आ लिया,आ+आ=आ,उव्वझायाणं-उपाध्याय का उ लिया आ+उ =ओ,मुनियो का म लिया,अ+अ+आ+उ+म =ॐ।ॐ नमः बोलने से अरिहंत,सिद्ध,आचार्य , उपाध्याय,साधु परमेष्ठि को नमस्कार हो।
इस मन्त्र का ९ बार इसलिए जपते है जिससे,मन वचन,काय और कृत,कारित,अनुमोदन ,इन ९ प्रकार से जो पाप हुए है वे नष्ट हो जाए!मुनिमहाराज जी कायोत्सर्ग करते हुए ९ बार णमोकार मन्त्र इसीलिए बोलते है जिससे उनके मन,वचन,काय से कृत,कारित,अनुमोदन से हुए पाप क्षय को प्राप्त हो!
ये मन्त्र १०८ब़ार इसलिए जपते है क्योकि यह जीव १०८ प्रकार्रों से जीवाधिकरण नाम का आस्रव करता है! अर्थात जीव के १०८ परिणामों से कर्म आते है,इन आठ तरह से वह पाप करता है ! संरम्भ,समारंभ,आरम्भ इन तीन को गुणा मन ,वचन,काय- तीन से,९ हो गए कृत,कारित,अनुमोदन -तीन से गुणा करने पर२७ हो गए! इसे क्रोध,मान,माया,लोभ-४ से गुणा किया १०८ हो गए!इन १०८ प्रकार के आस्रव नहीं हो,इसलिए १०८ ब़ार णमोकार मन्त्र का जाप करते है!
णमोकार मन्त्र का जाप, यदि अँगुलियों से करते है तो बीच की अंगुली के मध्य पर्व से आरम्भ कर घड़ी की सुई की दिशा मे चलते हुए एक एक पर्व पर चलते हुए तीसरी अंगुली के अंतिम पर्व पर आने से ९ ब़ार हो जायेगे!सीधे हाथ की अंगुलियो पर क्रमश १ से १२ तक,प्रत्येक ९ बार का चक्र होने पर,१ पर्व गिनते हुए १२ वे पर्व तक पहुंच कर १०८ बार की माला का जापपूर्ण कर लेगे।
माला लेकर जाप के लिए पद्मासन मे बैठते है या खड़े होकर जाप करते है तब सीधा हाथ नाभि से ऊपर होना चाहिए और माला दूसरे उल्टे हाथ मे ठीक पहले हथ की हथेली के ऊपर सीधी होनी चाहिए।
उच्चारण करने की २ विधि है
१-अन्तर्जप-जब मन ही मन उच्चारण करते है।
२-बाह्यजप -पूर्ण बोलकर उच्चारण पूर्वक करते है।
मन्त्र का शुद्ध उच्चारण सही गति से करना चाहिए, हीनाधिक गति से नही।
माला मे ऊपर के ३ दाने सम्यग्दर्शन,सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के लिये होते है जिन्हे जाप शुरू करने पर बोलते है ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनाय नमः,ॐ ह्रीं सम्यक्ज्ञानाय नमः,ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्राय नमः।माला १०८ बार पूर्ण करने के बाद पुनः ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनाय नमः,ॐ ह्रीं सम्यक्ज्ञानाय नमः,ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्राय नमःबोले।
जाप लेते समय मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर होना चाहिए।वस्त्र शुद्ध होने चाहिए।मन संकल्पो विकल्पो से रहित,किसी प्रकार की कषाय रहित शुद्ध होना चाहिए।वचन की शुद्धि ,मंत्र का उच्चारण शुद्ध करे,कोई भी मात्रा या अक्षर हीनाधिक नही होना चाहिए। काय की शुद्धि-वस्त्रो,शरीर की शुद्ध होनी चाहिए।जाप,निश्चिंत होकर, मन की स्थिरता के साथ शांत,कोलाहल्ल रहित वातावरण मे,जैसे प्रातःकाल ४ बजे करनी चाहिए।
जब णमो अरिहंताणं बोले तब अरिहंत परमेष्ठि का चिंतवन करे ,इसी तरह अन्य सभी परमेष्ठियो का चिंतवन क्रमशः उनका उच्चारण करते हुए करे।
णमोकार मंत्र की जाप का फल-
१- जितने समय हम जाप जपते है उतने समय के लिए पाप कर्मो के आस्रव-बंध से बचते है!
२-परिणामों मे विशुद्धि आने से पुण्य का बंध होता है!
३- महान आचार्यों ने लिखा है की णमो कार मन्त्र का जप करने से कर्मों की महान निर्जरा होती है!
शर्त है की जाप सही स्थान पर,सही भाव से,श्रद्धा और भक्ति के साथ सही तरीके से करी हो जिससे सातिशय पुण्यकर्म का बंध होता है और कर्मों की निर्जरा होती है
एक बुज़ुर्ग ,कापी पर णमोकार मन्त्र दिन भर लिखते रहते थे और जो कापिया भर जाती वे प्रकाशक णमोकार बैंक में भेज देते थे ! यह भी एक तरीका है अपने कर्मों की निर्जरा करने का! और अपने को सही उपयोग में लगाने का! वे इस प्रकार नाती पोतियों के राग द्वेष से अपने को बचा लेते थे !
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By - Rupesh Jain
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"णमो अरिहंताणं,
णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं,
णमो उव्वझायाणं,
णमो लोए सव्व साहूणं "
यह प्राकृत भाषा में महामंत्र है! इसके प्रत्येक शब्द का मात्रा सहित शुद्ध उच्चारण करना चाहिए अन्यथा मन्त्र का पूर्ण लाभ नहीं प्राप्त होगा ! इस मन्त्र में ३५ अक्षर और ५८ मात्राये हैं। कुछ लोग इसमें प्रत्येक के साथ ॐ लगा देते है जो कि अनुचित है क्योकि इससे अक्षर की संख्या ३५ से अधिक हो जाती है। पुण्यार्जन हेतु गलत नहीं है बस व्याकरण की दृष्टि से।
इस महामंत्र में ,प्रथम पद -णमो अरिहंताणं,णमो अरहंताणं,णमो अरूहंताणं, ३ तरह से बोला जाता है।
णमो अरिहंताणं- घातिया कर्म शत्रुओ को नाश करने वाले,
णमो अरहंताणं-तीनो लोको मे सबके द्वारा पूज्य,
णमो अरूहंताणं -जिनका जन्म मरण नष्ट हो गया ,जो पुनः उत्पन्न नही होगे।
तीनो शब्द-अर्थ ठीक है कोई भी बोल सकते है किन्तु मूल षट्खंङागम के मंगलाचरण मे, लगभग १८००-१९००-वर्ष पूर्व,सर्वप्रथम आ.पुष्प दंत जी ने लिपिबद्ध करते हुए णमो अरिहंताणं लिखा है ,इसलिये यह पद मूल है। प्राथमिकताइसी पद को ही देनी चाहिए।
णमो अरिहंताणं और णमो अरहंताणं के बोलने से मात्राओ मे अन्तर नही पड़ता।क्योकि दोनो लघु है,दीर्घ नही।
इस मंत्र को आचार्यो के अनुसार १८४३२ तरह से पढ़ सकते है।
इस मंत्र से शास्त्रो के अनुसार ८४ लाख मंत्रो की रचना हुई है।
पंच परमेष्ठी अनादिकाल से है इसलिए उनका नमस्कार अनादिकाल से किसी न किसी रूप मे है।णमोकार मंत्र, जो वर्तमान मे है,यह तो ईसा की दूसरी शताब्दी मे ग्रंथराज षट्खंडागम के मंगलाचरण के रूप मे निबद्ध किया गया है।इसका प्रमाण,खंडगिरी और उदयगिरी की खारवेल महाराज की हाथी गुफा के ऊपर एक शिलालेख मे णमो अरिहंताणं और णमो सव्व सिद्धाणं लिखा है।सम्भवतः पहले णमोकार मंत्र इस रूप मे पढ़ा जाता हो।
मन्त्र का अर्थ -
णमो अरिहंताणं -अरिहंतो अर्थात जिनके चार घातिया कर्म नष्ट हो गए हो उन को नमस्कार हो !
णमो सिद्धाणं-सिद्धो,मोक्ष मे विराजमान भगवानको नमस्कार हो,
णमो आयरियाणं-आचार्य भगवन्तो को नमस्कार हो,
णमो उव्वझायाणं-उपाध्यायो परमेष्ठी को नमस्कार हो,
णमो लोएसव्वसाहूणं- लोक मे सब साधु परमेष्ठी को नमस्कार हो।
लोक मे सभी पाचो पदो के साथ लगा सकते है
ॐ की रचना पंच परमेष्ठियों के पहले अक्षर को लेकर करी गई है अरिहंत मे से अ,-सिद्धो को अशरीरि कहते है,यहा से अ लिया,अ +अ=आ,आयरियाणं-आचार्यो मे से आ लिया,आ+आ=आ,उव्वझायाणं-उपाध्याय का उ लिया आ+उ =ओ,मुनियो का म लिया,अ+अ+आ+उ+म =ॐ।ॐ नमः बोलने से अरिहंत,सिद्ध,आचार्य , उपाध्याय,साधु परमेष्ठि को नमस्कार हो।
इस मन्त्र का ९ बार इसलिए जपते है जिससे,मन वचन,काय और कृत,कारित,अनुमोदन ,इन ९ प्रकार से जो पाप हुए है वे नष्ट हो जाए!मुनिमहाराज जी कायोत्सर्ग करते हुए ९ बार णमोकार मन्त्र इसीलिए बोलते है जिससे उनके मन,वचन,काय से कृत,कारित,अनुमोदन से हुए पाप क्षय को प्राप्त हो!
ये मन्त्र १०८ब़ार इसलिए जपते है क्योकि यह जीव १०८ प्रकार्रों से जीवाधिकरण नाम का आस्रव करता है! अर्थात जीव के १०८ परिणामों से कर्म आते है,इन आठ तरह से वह पाप करता है ! संरम्भ,समारंभ,आरम्भ इन तीन को गुणा मन ,वचन,काय- तीन से,९ हो गए कृत,कारित,अनुमोदन -तीन से गुणा करने पर२७ हो गए! इसे क्रोध,मान,माया,लोभ-४ से गुणा किया १०८ हो गए!इन १०८ प्रकार के आस्रव नहीं हो,इसलिए १०८ ब़ार णमोकार मन्त्र का जाप करते है!
णमोकार मन्त्र का जाप, यदि अँगुलियों से करते है तो बीच की अंगुली के मध्य पर्व से आरम्भ कर घड़ी की सुई की दिशा मे चलते हुए एक एक पर्व पर चलते हुए तीसरी अंगुली के अंतिम पर्व पर आने से ९ ब़ार हो जायेगे!सीधे हाथ की अंगुलियो पर क्रमश १ से १२ तक,प्रत्येक ९ बार का चक्र होने पर,१ पर्व गिनते हुए १२ वे पर्व तक पहुंच कर १०८ बार की माला का जापपूर्ण कर लेगे।
माला लेकर जाप के लिए पद्मासन मे बैठते है या खड़े होकर जाप करते है तब सीधा हाथ नाभि से ऊपर होना चाहिए और माला दूसरे उल्टे हाथ मे ठीक पहले हथ की हथेली के ऊपर सीधी होनी चाहिए।
उच्चारण करने की २ विधि है
१-अन्तर्जप-जब मन ही मन उच्चारण करते है।
२-बाह्यजप -पूर्ण बोलकर उच्चारण पूर्वक करते है।
मन्त्र का शुद्ध उच्चारण सही गति से करना चाहिए, हीनाधिक गति से नही।
माला मे ऊपर के ३ दाने सम्यग्दर्शन,सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के लिये होते है जिन्हे जाप शुरू करने पर बोलते है ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनाय नमः,ॐ ह्रीं सम्यक्ज्ञानाय नमः,ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्राय नमः।माला १०८ बार पूर्ण करने के बाद पुनः ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनाय नमः,ॐ ह्रीं सम्यक्ज्ञानाय नमः,ॐ ह्रीं सम्यक्चारित्राय नमःबोले।
जाप लेते समय मुख पूर्व या उत्तर दिशा की ओर होना चाहिए।वस्त्र शुद्ध होने चाहिए।मन संकल्पो विकल्पो से रहित,किसी प्रकार की कषाय रहित शुद्ध होना चाहिए।वचन की शुद्धि ,मंत्र का उच्चारण शुद्ध करे,कोई भी मात्रा या अक्षर हीनाधिक नही होना चाहिए। काय की शुद्धि-वस्त्रो,शरीर की शुद्ध होनी चाहिए।जाप,निश्चिंत होकर, मन की स्थिरता के साथ शांत,कोलाहल्ल रहित वातावरण मे,जैसे प्रातःकाल ४ बजे करनी चाहिए।
जब णमो अरिहंताणं बोले तब अरिहंत परमेष्ठि का चिंतवन करे ,इसी तरह अन्य सभी परमेष्ठियो का चिंतवन क्रमशः उनका उच्चारण करते हुए करे।
णमोकार मंत्र की जाप का फल-
१- जितने समय हम जाप जपते है उतने समय के लिए पाप कर्मो के आस्रव-बंध से बचते है!
२-परिणामों मे विशुद्धि आने से पुण्य का बंध होता है!
३- महान आचार्यों ने लिखा है की णमो कार मन्त्र का जप करने से कर्मों की महान निर्जरा होती है!
शर्त है की जाप सही स्थान पर,सही भाव से,श्रद्धा और भक्ति के साथ सही तरीके से करी हो जिससे सातिशय पुण्यकर्म का बंध होता है और कर्मों की निर्जरा होती है
एक बुज़ुर्ग ,कापी पर णमोकार मन्त्र दिन भर लिखते रहते थे और जो कापिया भर जाती वे प्रकाशक णमोकार बैंक में भेज देते थे ! यह भी एक तरीका है अपने कर्मों की निर्जरा करने का! और अपने को सही उपयोग में लगाने का! वे इस प्रकार नाती पोतियों के राग द्वेष से अपने को बचा लेते थे !
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By - Rupesh Jain
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