Monday, December 11, 2017

श्री चिंतामणि पार्श्वनाथ भगवान - जैन धर्म के 23 वें तीर्थंकर (Tirthankar Shri Parshwanath Bhagwan





आज से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व पौष कृष्ण दशमी के दिन जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में हुआ था। उनके पिता का नाम अश्वसेन और माता का नाम वामादेवी था। राजा अश्वसेन वाराणसी के राजा थे। जैन पुराणों के अनुसार तीर्थंकर बनने के लिए पार्श्वनाथ को पूरे नौ जन्म लेने पड़े थे। पूर्व जन्म के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फलत: ही वे तेईसवें तीर्थंकर बने।

पुराणों के अनुसार पहले जन्म में वे मरुभूमि नामक ब्राह्मण बने, दूसरे जन्म में वज्रघोष नामक हाथी, तीसरे जन्म में स्वर्ग के देवता, चौथे जन्म में रश्मिवेग नामक राजा, पांचवें जन्म में देव, छठे जन्म में वज्रनाभि नामक चक्रवर्ती सम्राट, सातवें जन्म में देवता, आठवें जन्म में आनंद नामक राजा, नौवें जन्म में स्वर्ग के राजा इन्द्र और दसवें जन्म में तीर्थंकर बने।

दिगंबर धर्म के मतावलंबियों के अनुसार पार्श्वनाथ बाल ब्रह्मचारी थे, जबकि श्वेतांबर मतावलंबियों का एक धड़ा उनकी बात का समर्थन करता है, लेकिन दूसरा धड़ा उन्हें विवाहित मानता है। इसी प्रकार उनकी जन्मतिथि, माता-पिता के नाम आदि के बारे में भी मतभेद बताते हैं।

बचपन में पार्श्वनाथ का जीवन राजसी वैभव और ठाटबाठ में व्यतीत हुआ। जब उनकी उम्र सोलह वर्ष की हुई और वे एक दिन वन भ्रमण कर रहे थे, तभी उनकी दृष्टि एक तपस्वी पर पड़ी, जो कुल्हाड़ी से एक वृक्ष पर प्रहार कर रहा था। यह दृश्य देखकर पार्श्वनाथ सहज ही चीख उठे और बोले - 'ठहरो! उन निरीह जीवों को मत मारो।' उस तपस्वी का नाम महीपाल था।

अपनी पत्नी की मृत्यु के दुख में वह साधु बन गया था। वह क्रोध से पार्श्वनाथ की ओर पलटा और कहा - किसे मार रहा हूं मैं? देखते नहीं, मैं तो तप के लिए लकड़ी काट रहा हूं।
पार्श्वनाथ ने व्यथित स्वर में कहा- लेकिन उस वृक्ष पर नाग-नागिन का जोड़ा है। महीपाल ने तिरस्कारपूर्वक कहा - तू क्या त्रिकालदर्शी है लड़के.... और पुन: वृक्ष पर वार करने लगा। तभी वृक्ष के चिरे तने से छटपटाता, रक्त से नहाया हुआ नाग-नागिन का एक जोड़ा बाहर निकला। एक बार तो क्रोधित महीपाल उन्हें देखकर कांप उठा, लेकिन अगले ही पल वह धूर्ततापूर्वक हंसने लगा।

तभी पार्श्वनाथ ने नाग-नागिन को णमोकार मंत्र सुनाया, जिससे उनकी मृत्यु की पीड़ा शांत हो गई और अगले जन्म में वे नाग जाति के इन्द्र-इन्द्राणी धरणेन्द्र और पद्‍मावती बने और मरणोपरांत महीपाल सम्बर नामक दुष्ट देव के रूप में जन्मा।

पार्श्वनाथ को इस घटना से संसार के जीवन-मृत्यु से विरक्ति हो गई। उन्होंने ऐसा कुछ करने की ठानी जिससे जीवन-मृत्यु के बंधन से हमेशा के लिए मुक्ति मिल सके। कुछ वर्ष और बीत गए। जब वे 30 वर्ष के हुए तो उनके जन्मदिवस पर अनेक राजाओं ने उपहार भेजें। अयोध्या का दूत उपहार देने लगा तो पार्श्वनाथ ने उससे अयोध्या के वैभव के बारे में पूछा।

उसने कहा- 'जिस नगरी में ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ जैसे पांच तीर्थंकरों ने जन्म लिया हो उसकी महिमा के क्या कहने। वहां तो पग-पग पर पुण्य बिखरा पड़ा है।

इतना सुनते ही भगवान पार्श्वनाथ को एकाएक अपने पूर्व नौ जन्मों का स्मरण हो आया और वे सोचने लगे, इतने जन्म उन्होंने यूं ही गंवा दिए। अब उन्हें आत्मकल्याण का उपाय करना चाहिए और उन्होंने उसी समय मुनि-दीक्षा ले ली और विभिन्न वनों में तप करने लगे।

काशी में 83 दिन की कठोर तपस्या करने के बाद 84वें दिन उन्हें कैवल्य ज्ञान प्राप्त हुआ और वे तीर्थंकर बन गए। पुंड़्र, ताम्रलिप्त आदि अनेक देशों में उन्होंने भ्रमण किया। ताम्रलिप्त में उनके शिष्य हुए। पार्श्वनाथ ने चतुर्विध संघ की स्थापना की, जिसमे मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका होते है और आज भी जैन समाज इसी स्वरुप में है। प्रत्येक गण एक गणधर के अन्तर्गत कार्य करता था। सभी अनुयायियों, स्त्री हो या पुरुष सभी को समान माना जाता था। केवल ज्ञान के पश्चात्य तीर्थंकर ने जैन धर्म के पाँच व्रत सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य की शिक्षा दी थी।


चैत्र कृष्ण चतुर्दशी के दिन उन्हें कैवल्यज्ञान प्राप्त हुआ वे सौ वर्ष तक जीवित रहे। अंत में अपना निर्वाणकाल समीप जानकर श्री सम्मेद शिखरजी (पारसनाथ की पहाड़ी जो झारखंड में है) पर चले गए जहाँ श्रावण शुक्ला अष्टमी को उन्हे मोक्ष की प्राप्ती हुई। भगवान पार्श्वनाथ की लोकव्यापकता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि आज भी सभी तीर्थंकरों की मूर्तियों और चिह्नों में पार्श्वनाथ का चिह्न सबसे ज्यादा है। आज भी पार्श्वनाथ की कई चमत्कारिक मूर्तियाँ देश भर में विराजित है। जिनकी गाथा आज भी पुराने लोग सुनाते हैं। ऐसा माना जाता है कि महात्मा बुद्ध के अधिकांश पूर्वज भी पार्श्वनाथ धर्म के अनुयायी थे।.

भगवान पार्श्वनाथ का अर्घ्य

जल आदि साजि सब द्रव्य लिया। 
कन थार धार न‍ुत नृत्य किया।
सुख दाय पाय यह सेवल हौं। 
प्रभु पार्श्व सार्श्वगुणा बेवत हौं।



Friday, September 15, 2017

जैन साधु बनने के लिए इस जोड़े ने छोड़ी 100 करोड़ की संपत्ति और 3 साल की बेटी

नीमच। एशो-आराम की जिंदगी पाने के लिए लोग क्या-क्या नहीं करते लेकिन एक जोड़ा ऐसा है जो ये सब त्यागने जा रहा है। करोड़ों की संपत्ति का मालिक ये कपल संत बनने की चाह रखता है और इसलिए दुनिया के सभी मोह छोड़ने का फैसला लिया है। दोनों की एक बेटी भी है।

मध्य प्रदेश के नीमच शहर के रहने वाले सुमित राठौड़ और उनकी पत्नी अनामिका 23 सितंबर 2017 को सूरत में आचार्य श्री रामलाल जी महाराज साहेब के पास दीक्षा लेकर जैन संत और जैन साध्वी बनने जा रहे हैं 




100 करोड़ की संपत्ति के मालिक
मध्य प्रदेश के नीमच शहर के रहने वाले सुमित राठौड़ और उनकी पत्नी अनामिका ने संत बनने का फैसला लिया है। दोनों की नीमच में 100 करोड़ से ज्यादा की संपत्ति है। सुमित का परिवार काफी रसूख वाला है और नीमच में उनका बड़ा बिजनेस है। लंदन से बिजनेस में डिप्लोमा कर चुके सुमित ने दो साल तक वहीं नौकरी भी की थी लेकिन फिर फैमिली बिजनेस संभालने देश वापस आ गए।


अनामिका के पिता पूर्व भाजपा अध्यक्ष
उनकी कंपनी की वैल्यू 10 करोड़ से ज्यादा की है और करीब 100 लोग उनके लिए काम करते हैं। परिवार के स्टेटस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कंपनी में अंग्रेजों का बनाया हुआ कॉमर्शियल कैंपस है। वहीं अनामिका भी बड़े घराने से ताल्लुक रखती हैं। उनके पिता अशोक चंडालिया चित्तौड़गढ़ भाजपा के पूर्व अध्यक्ष रह चुके हैं। अनामिका ने इंजीनियरिंग की है और शादी से पहले लाखों की नौकरी करती थीं। अपनी गृहस्थी संभालने के लिए अनामिका ने नौकरी छोड़ दी थी।

3 साल की बेटी को भी छोड़ने को तैयार
सुमित और अनामिका की एक तीन साल की बेटी भी है जिसके सिर से मां-बाप का साया छिनने वाला है। दोनों को परिवार वालों ने समझाने की काफी कोशिश की लेकिन ये कपल अपने फैसले पर अडिग है। दोनों का कहना है कि ये बच्ची बहुत पुण्यशाली है, इसके गर्भ में आते ही उन्हें आत्मकल्याण का बोध हो गया है और यही कारण है कि उन्होंने संत बनने का फैसला किया है।

बेटी जब आठ महीने की हुई, तभी सुमित और अनामिका ने शीलव्रत यानि ब्रह्मचर्य पालन करने का नियम ले लिया था । परिजनों को तभी ये महसूस हो गया था, कि दीक्षा लेंगे, पर इतनी जल्दी ये निर्णय ले लेंगे ये उन्होने नहीं सोचा था । धन्य हो सुमित जी और अनामिका जी को, जो इस भौतिक चकाचौंध के वातावरण में इन्होने दुष्कर संयम पालन करने का निर्णय लिया ।
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Saturday, June 24, 2017

कुछ देर चले साधुओं के साथ - VIHAR SEWA से जुड़ें

शाजापुर के विजय जी जैन की अनुमोदना 
एक पैर के सहारे भी चले विहार में !!



ये है शाजापुर(MP) के विजय जी जैन 
जो हम सभी लोगो के लिए 1 प्रेरणा स्त्रोत है 
ये फ़ोटो हमारे लिए समझने के लिए सन्देश है 
समझदार व्यक्ति को सिर्फ इशारा ही काफी है।
आज की इस अंधाधुन्द भागदोड़ की अफरातफरी में 
हम श्रावक लोग शासन की रक्षा करने वाले 
भगवान् महावीर के पथ पर चलने वाले 
गुरु भगवन्तो के साथ पैदल 
थोड़ी देर सेवा भी नही कर सकते है क्या???

Wednesday, June 7, 2017

12वीं बोर्ड में 99.9 प्रतिशत अंक लाने के बाद सांसारिक मोह छोड़ लिया दीक्षा का फैसला

अहमदाबाद -

देश भर में परीक्षा के नतीजों ने बच्चों और उनके परिवारों के दिल की धड़कने बढ़ा कर रखी हैं. जहां नतीजे नहीं आए हैं, वहां अभी भी कैलेंडर पर नज़र रखी जा रही है. वहीं जहां रिज़ल्ट आ चुके हैं, वहां बच्चों के भविष्य की योजना बनाई जा रही है. लेकिन गुजरात बोर्ड में अव्वल आए वर्शिल शाह ने अपने लिए कुछ अलग ही रास्ता चुना है.
अहमदाबाद के रहने वाले 17 साल के वर्शिल शाह का जब रिजल्ट आया तो उनके घर में भी खुशी थी. वर्शिल फर्स्ट डिवीजन में ही पास नहीं हुआ है बल्कि उसने 99.9 फीसद अंक लाकर इतिहास रच दिया. उसने गुजरात बोर्ड की परीक्षा में टॉप किया है. अब आप सोच रहे हैं होंगे की वर्शिल क्या बनना चाहता है... अपने माता-पिता से अपनी इस मेहनत का इनाम मांगने की बजाए वर्शील ने संसार का त्याग कर जैन साधु बनने की इजाजत मांगी. वर्शिल का यह कदम आपको हैरान कर सकता है क्योंकि वह डॉक्टर, इंजीनियर या कोई अधिकारी नहीं बनना चाहता है, वह जैन साधु बनने जा रहा है

हैरानी की बात यह है कि वर्शील के माता-पिता को भी अपने बेटे के इस फैसले पर कोई पछतावा नहीं है और पूरा परिवार वर्शील के दीक्षा समारोह की तैयारियों में जुटा है जो 8 जून गुरुवार को सूरत में होगा. वर्शील के पिता जिगर शाह कहते हैं कि उनका परिवार शुरू से ही आध्यात्म की तरफ अधिक झुकाव रहा. 
जिगर इनकम टैक्स डिपार्टमेंट में इंस्पेक्टर के पद पर कार्यरत हैं. जिगर कहते हैं, 'मेरी पत्नी अमी बहुत ज्यादा धार्मिक स्वभाव की है और मेरे बच्चे वर्शील और उसकी बहन का भी धर्म और अध्यात्म की तरफ झुकाव है. वास्तव में जब वर्शील की स्कूल की छुट्टियां होती थीं तो कहीं घूमने जाने की बजाए वह सत्संग में जाना पसंद करता था.'

इन सत्संगों के दौरान ही वर्शील कई जैन मुनियों और संन्यासियों के संपर्क में आया जो संन्यासी बनने से पहले डॉक्टर, इंजिनियर और चार्टर्ड अकाउंटेंट थे लेकिन असली खुशी उन्हें दीक्षा लेने के बाद ही मिली. 

परिवार में बेहद सादगी
वर्शिल की मां अमिबेन शाह और पिता जिगरभाई आयकर विभाग में हैं. इन दोनों ने अपने बेटे वर्शिल और बेटी जैनिनी को बहुत सादगी से जीवन जीना सिखाया है. पति-पत्नी दोनों ही जैन धर्म के बड़े अनुनायी हैं इसका अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि घर में बिजली के इस्तेमाल तभी किया जाता है जब जरूरत होती है. इनका मानना है कि बिजली पैदा करने की जो प्रक्रिया है उससे कई मासूम जानवरों की मौत हो जाती है. घर में टीवी और फ्रिज भी नहीं है.. 

जिगर शाह कहते हैं, 'हम उदास थे क्योंकि हमने उसके भविष्य को लेकर कई सपने देखे थे. लेकिन वर्शील ने कभी हमसे कुछ नहीं मांगा. इसलिए पहली बार जब उसने कुछ मांगा संसार का त्याग करने की उसकी इच्छा तो हमने उसे भी मान लिया. दीक्षा से वर्शील को खुशी मिलेगी और उसे खुश देखकर हम भी खुश रहेंगे.'   

Friday, April 7, 2017

अहिंसामूर्ति भगवान महावीर - Tirthankar Mahaveer

अहिंसामूर्ति भगवान महावीर

अहिंसा, संयम एवं तपोमय आदर्श जीवन के प्रतीक, भगवान महावीर को इस संतप्त विश्व में स्मरण कर, उनके जीवनादर्शों के चिन्तन एवं पालन की जितनी आवश्यकता आज उपस्थित हुई है, उतनी संभवत: पहले कभी नहीं रही होगी। इसलिए आज हम पुन:, हमारे सुंदर अतीत की इस परम विभूति की गौरव-गाथा गाकर, अपने राष्ट्रीय व्यक्तित्व को टटोलें और पुन: उनके मंगल मार्ग पर चलने का संकल्प करें।


भारत में श्रमण और वैदिक, ये दो परम्पराएं बहुत प्राचीनकाल से चली आ रही  हैं। इनका अस्तित्व ऐतिहासिक काल से आगे प्राग्-ऐतिहासिक काल मे भी जाता है। भगवान ऋषभ प्राग्-ऐतिहासिक काल मे हुए थे। वे जैन परम्परा के आदि तीर्थंकर थे और धर्म-परम्परा के भी प्रथम प्रवर्तक थे। भगवान महावीर चौबीसवें और इस युग के अन्तिम तीर्थंकर के रूप में मान्य हैं।

भगवान महावीर का जन्म-स्थान, गंगा के दक्षिण में और पटना से 27 मील उत्तर में, आया बसाड़ नाम का गांव है। वहां क्षत्रिय कुंड और कुण्डपुर नाम के दो उपनगर थे। ईसा से 599 वर्ष पूर्व, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के पावन दिन, भगवान महावीर ने पिता सिद्धार्थ एवं माता महारानी त्रिशला के यहाँ जन्म लिया।

तीस वर्ष की यौवनावस्था में, महावीर पूर्ण संयमी बनकर श्रमण बन गये। दीक्षित होते ही उन्हें मन:पर्यव ज्ञान हो गया। दीक्षा के बाद, महावीर प्रभु ने घोर तपस्या एवं साधना की। अनेक महान उपसर्गों को अपूर्व समता भाव से सहन किया। ग्वालों का उपसर्ग, संगम देव के कष्ट, शूलपाणि यक्ष का परिषह, चण्डकौशिक का डंक, व्यन्तरी के उपसर्ग, भगवान महावीर की समता एवं सहनशीलता के असाधारण उदाहरण हैं।

साढ़े बारह वर्ष की अपूर्व साधना के पचात, प्रभु महावीर को केवलज्ञान की उपलब्धि हुई।

भगवान महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न होते ही, देवगणों ने पंचदिव्यों की वृष्टि की और सुन्दर समवसण की रचना की। भगवान के समवसण में आकश मार्ग से देव-देवियों के समुदाय आने लगे। प्रमुख पंडित इंद्रभूति को जब मालूम हुआ, कि नगर के बाहर सर्वज्ञ महावीर आये हैं और उन्हीं के समवसण में, ये देव गण जा रहें हैं, तो उनके मन मे अपने पांडित्य का अहंकार जाग्रत हो उठा। वे भगवान के अलौकिक ज्ञान की परख करने और उनको शास्त्रार्थ में पराजित करने की भावना से समवसण में आये।

भगवान की शांत मुद्रा एवं तेजस्वी मुख-मण्डल को देखकर तथा उनकी अमृत वाणी का पान करने से इंद्रभूति के सब अन्तरंग संशयों का छेदन हो गया और वे उसी समय अपने शिष्यों सहित भगवान के चरणों में दीक्षित हो गये। इसी प्रकार अन्य दस विद्वान भी अपनी शिष्य मण्डली के साथ उसी दिन दीक्षित हुए। ये ग्यारह प्रमुख शिष्य ही गणधर कहलाये।

भगवान महावीर ने अहिंसा, संयम, तप, पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, अनेकान्त, अपरिग्रह एवं आत्मवाद का उपदेश दिया। अवतारवाद की मान्यता का खण्डन करते हुए, उत्रारवाद प्रस्तुत किया। यज्ञ के नाम पर होने वाली पशु एवं नरबलि का घोर विरोध किया तथा सभी वर्ग के सभी जाति के लोगों को धर्मपालन का अधिकार बतलाया। जाति-पांति व लिंग के भेदभाव को मिटाने हेतु उपदेश दिये। चंदनबाला प्रकरण महावीर की स्त्री जाति के प्रति संवेदना का विशेष उदाहरण है।

महावीर नें 30 वर्षों तक, तीर्थंकर के रूप में विचरण कर, जिन धर्म का सदुपदेश दिया। आपका अन्तिम चातुर्मास पावापुरी में हुआ। जब वर्र्षाकाल का चौथा मास चल रहा था, कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन, भगवान ने रात्रि में चार  अघाति कर्मों का क्षय किया और पावापुरी में परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। पावापुरी बिहारशरीफ के सन्निकट है। यहां पर सुन्दर एवं मनोरम जल-मंदिर है। जैन लोग इसे भगवान महावीर की पुण्यभूमि मानते हैं और इस पवित्र तीर्थभूमि का दर्शन कर अपने जीवन को कृतकृत्य समझते हैं। निर्वाण के समय भगवान की आयु 72 वर्र्ष थी।


भगवान महावीर प्रतिशोधात्मक हिंसा, प्रतीकारात्मक हिंसा और आशंकाजनित हिंसा से उपरत थे, अनर्थ हिंसा की तो बात ही कहां ? भगवान महावीर अपने साधना काल में, प्राय: मौन रहते थे। अधिकांश समय ध्यानस्थ रहते और अनाहार की तपस्या करते थे। वे अपने विशष्ट साधना बल के आधार पर कैवल्य को प्राप्त हुए।


you can see full song here

Baje Kundalpur me badhayi - https://youtu.be/2__zIVDWeWI

जन्म के पूर्व गर्भकाल में ही, महावीर ने अहिंसा को आत्मसात~ कर लिया था। जैन साहित्य में उनके गर्भकाल का एक रोचक प्रसंग प्राप्त होता है। गर्भस्थ शिशु वद्र्धमान ने एक बार विचार किया कि, जब मैं माँ के उदर में स्पंदन-कंपन करता हूँ, तो इससे मेरी माँ को कष्ट तो होता होगा। क्या ही अच्छा हो, कि मैं स्पन्दन को बंद कर दूं , ताकि मेरी माँ को कष्ट न हो। शिशु ने वैसा ही किया। शरीर को स्थिर कर लिया। मानो कि कायगुप्ति और कायोत्सर्ग का प्रयोग किया हो। उधर माँ त्रिशला ने अनुभव किया कि, गर्भ का स्पंदन बंद हो गया। लगता है गर्भ मृत हो गया है। इस अनुमान ने माँ को शोक सरोवर में निमग्न कर दिया।

कुछ समय बाद गर्भस्थ शिशु ने वशिष्ट ज्ञान से माँ की स्थिति को देखा तो पता चला कि काम तो उल्टा ही हो गया। किया तो अच्छे के लिए और हो गया कुछ अन्यथा। उसने पुन: स्पंदन शुरू किया तब माँ को पता चला कि गर्भ सुरक्षित है। वातावरण पुन: हर्षमय बन गया। उस समय गर्भस्थ शिशु ने चिंतन किया कि, मेरे स्पंदन बंद कर देने मात्र से माँ को इतना कष्ट हो सकता है, तो यदि मैं माँ-पिता की विद्यमानता में संन्यास का पथ स्वीकार करूंगा तो उन्हें कितना कष्ट होगा। इसलिए, मैं संकल्प करता हूँ कि अपनी माता-पिता की विद्यमानता में, मैं संन्यास स्वीकार नहीं करूंगा। यह प्रसंग प्रभु महावीर के गर्भकाल में होने वाली करूणा और मातृ-पितृ भक्ति का सशक्त और विरल उदाहरण है।

भगवान श्री महावीर का साधनाकाल घोर कष्टमय रहा था। शूलपाणि यक्ष और संगम देव ने एक-एक रात, प्रभु को बीस-बीस मारणान्तिक कष्ट दिये। जिनको पढ़ने और सुनने मात्र से काया कांप उठती है। शास्त्रों के अनुसार, अभिनिष्क्रमण के बाद कई महीनों तक महावीर की देह को जहरीले मच्छर, कीड़े आदि नोचते रहे और उनका रक्त पीते रहे। लाढ़ देश के अनार्य लोगों ने भगवान को बहुत यातनाएं दी। मारा, पीटा शिकारी कुत्तों को पीछे लगाया। चण्ड कौशिक सांप ने काटा। ग्वालों ने कानों में किल्लियां ठोकी, पावों में आग जलाकर खीर पकाई, फिर भी समता के सुमेरू महावीर अडोल और अकम्प रहे। ध्यानयोग, तपोयोग और अन्तमौंन में लीन रहे। उनकी चेतना सदा अस्पर्श योग के शिखर पर प्रतिष्ठित रही। वे आत्केन्द्रित थे।
महावीर का पूरा साधना काल समता की साधना में बीता। उनके सामने अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही प्रकार के परीषह उत्पन्न हुए। उन्होंने अपनी सहिष्णुता के द्वारा उन परीषहों को निरस्त किया। उनकी समता की साधना थी।

शोध विद्वानों के मत से महावीर को कोई ऐसा द्विव्य ज्ञान प्राप्त था, जिससे, वह अपने प्राण उर्जा को चेतना के किसी ऐसे बिन्दु पर केन्द्रित कर लेते थे, जिससे शरीर पर घटित होने वाली किसी भी घटना का उनकी चेतना पर प्रभाव नहीं पड़ता था। वह गुण उनका विलक्षण अस्पर्शयोग ही था।


महावीर का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त अनेकान्तवाद व स्यादवाद है। महावीर ने कहा है, कि सभी मत और सिद्धान्त पूर्ण सत्य या पूर्ण असत्य नहीं हैं। सापेक्ष दृष्टि से विचार करने पर सभी दृष्टिकोण सत्य ही प्रतीत होते हैं। इसलिए, अपने-अपने मत या सिद्धान्त पर अड़े रहने से संघर्ष बढ़ता है। आज जो वर्ग-संघर्ष, अशान्ति और शस्त्रों का अन्धानुकरण बढ़ रहा है, उसे रोकने में अनेकान्त की दृष्टि, सहअस्तित्व की भावना महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। महावीर ने कहा था, कि प्रत्येक इन्सान यदि अपने स्वरूप को पहचान ले, तो स्वयं भगवान बन जाता है। महावीर का भगवान सृष्टि संचालक हीं हैं। महावीर का भगवान भगवत्ता को प्राप्त इन्सान है। महावीर ने स्वयं को पहचानने के तीन सूत्र दिये एकांत, मौन, और घ्यान। महावीर ने तप भी किया था-उपवास का तप। उपवास यानी, आत्मा में वास करना। भोजन छूटना उसका सहज परिणाम था। महावीर के लिए ध्यान और उपवास अलग अलग नहीं थे। ध्यान और उपवास दोनों का ही अर्थ है, आत्म केद्रित अवस्था।

महावीर की साधना हमारे जीवन की प्रयोगभूमि है। हम केवल महावीर के अनुयायी बनकर ना रह जाये। स्वंय के भीतर ध्यान की ज्योति जलाकर महावीर को पुर्नजीवित करें। जो महावीर चले गये, वो लौटकर नही आ सकते। किंतु हमारे भीतर का महावीर जरूर जाग सकता हैं। महावीर ने कहा था-अप्पणा सच्चमे सेज्जां मेत्ति भूएसु कप्पए, स्वयं सत्य को खोजें एवं सबके साथ मैत्री करें। महावीर ने कहा था, जीओ और जीने दो। इस प्रकार महावीर के पुराने सिद्धान्तों की आज भी उतनी ही आवयकता है, जितनी उस समय थी। आवश्कता सिर्फ उन्हें गहराई से समझकर अपनाने की है।

Monday, March 20, 2017

भगवान आदिनाथ की सम्पूर्ण जीवनी - Aadinath - Rushabhdev Ji Story

ॐ हीँ श्री आदिनाथाय जिनेन्द्रायनम :  

🙏🏼
भगवान आदिनाथ की सम्पूर्ण जीवनी -


 
आज चैत्र वदी ८ वार मंगलवार दिनाँक 21/03/2017
प्रभु का जन्म एवं दीक्षा कल्याणकपर्व की आप सभी को हार्दिक बधाइयाँ 


🙏🏼 1008
श्री ऋषभदेव भगवान का गर्भावतार-
भगवान् के गर्भ में आने के छह महीने पहले इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने माता के आंगन में साढ़े सात करोड़ रत्नों की वर्षा की थी। किसी दिन रात्रि के पिछले प्रहर में रानी मरुदेवी ने ऐरावत हाथी, शुभ्र बैल, हाथियों द्वारा स्वर्ण घंटों से अभिषिक्त लक्ष्मी, पुष्पमाला आदि सोलह स्वप्न देखे। प्रातः पतिदेव से स्वप्न का फल सुनकर अत्यन्त हर्षित हुईं। उस समय अवसर्पिणी काल के सुषमा दुःषमा नामक तृतीय काल में चैरासी लाख पूर्व तीन वर्ष, आठ मास और एक पक्ष शेष रहने पर आषाढ़ कृष्ण द्वितीया के दिन उत्तराषाढ़ नक्षत्र में वज्रनाभि अहमिन्द्र देवायु का अन्त होने पर सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर मरुदेवी के गर्भ में अवतीर्ण हुए। उस समय इन्द्र ने आकर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया। इन्द्र की आज्ञा से श्री, आदि देवियाँ और दिक्कुमारियाँ माता की सेवा करते हुए काव्यगोष्ठी, सैद्धान्तिक चर्चाओं से और गूढ़ प्रश्नों से माता का मन अनुरंजित करने लगीं।

🙏 
भगवान ऋषभदेव का जन्म महोत्सव-
नव महीने व्यतीत होने पर माता मरुदेवी ने चैत्र कृष्ण नवमी के दिन सूर्योदय के समय मति-श्रुत-अवधि इन तीनों ज्ञान से सहित भगवान् को जन्म दिया। सारे विश्व में हर्ष की लहर दौड़ गई। इन्द्रों के आसन कम्पित होने से, कल्पवृक्षों से पुष्पवृष्टि होने से एवं चतुर्निकाय देवों के यहां घंटा ध्वनि, शंखनाद आदि बाजों के बजने से भगवान का जन्म हुआ है ऐसा समझकर सौधर्म इन्द्र ने इन्द्राणी सहित ऐरावत हाथी पर चढ़कर नगर की प्रदक्षिणा करके भगवान को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर 1008 कलशों से क्षीरसमुद्र के जल से भगवान का जन्माभिषेक किया। अनन्तर वस्त्राभरणों से अलंकृत करके ऋषभदेवयह नाम रखा। इन्द्र अयोध्या में वापस आकर स्तुति, पूजा, तांडव नृत्य आदि करके स्वस्थान को चले गये।

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भगवान ऋषभदेव का विवाहोत्सव-
भगवान् के युवावस्था में प्रवेश करने पर महाराजा नाभिराज ने बड़े ही आदर से भगवान् की स्वीकृति प्राप्त कर इन्द्र की अनुमति से कच्छ, सुकच्छ राजाओं की बहन यशस्वती’, ‘सुनन्दाके साथ श्री ऋषभदेव का विवाह सम्पन्न कर दिया।

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भरत चक्रवर्ती आदि का जन्म-
यशस्वती देवी ने चैत्र कृष्ण नवमी के दिन भरत चक्रवर्ती को जन्म दिया तथा क्रमशः निन्यानवे पुत्र एवं ब्राह्मी कन्या को जन्म दिया। दूसरी सुनन्दा महादेवी ने कामदेव भगवान बाहुबली और सुन्दरी नाम की कन्या को जन्म दिया। इस प्रकार एक सौ तीन पुत्र, पुत्रियों सहित भगवान ऋषभदेव, देवों द्वारा लाये गये भोग पदार्थों का अनुभव करते हुए गृहस्थ जीवन व्यतीत कर रहे थे।

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भगवान द्वारा पुत्र-पुत्रियों का विद्याध्ययन-
भगवान ऋषभदेव गर्भ से ही अवधिज्ञानधारी होने से स्वयं गुरु थे। किसी समय भगवान ब्राह्मीसुन्दरी को गोद में लेकर उन्हें आशीर्वाद देकर चित्त में स्थित श्रुतदेवता को सुवर्णपट्ट पर स्थापित कर सिद्धं नमःमंगलाचरणपूर्वक दाहिने हाथ से , आदि वर्णमाला लिखकर ब्राह्मी कुमारी को लिपि लिखने का एवं बायें हाथ से सुन्दरी को अनुक्रम के द्वारा इकाई, दहाई आदि अंक विद्या को लिखने का उपदेश दिया था। इसी प्रकार भगवान ने अपने भरत, बाहुबली आदि सभी पुत्रों को सभी विद्याओं का अध्ययन कराया था।

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असि-मषि आदि षट्क्रियाओं का उपदेश-
काल प्रभाव से कल्पवृक्षों के शक्तिहीन हो जाने पर एवं बिना बोये धान्य के भी विरल हो जाने पर व्याकुल हुई प्रजा नाभिराज के पास गई। अनन्तर नाभिराज की आज्ञा से प्रजा भगवान ऋषभदेव के पास आकर रक्षा की प्रार्थना करने लगी। प्रजा1 के दीन वचन सुनकर भगवान ऋषभदेव अपने मन में सोचने लगे कि पूर्व-पश्चिम विदेह में जो स्थिति वर्तमान है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है। उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहां जैसे असि, मषि आदि षट्कर्म हैं, क्षत्रिय आदि वर्ण व्यवस्था, ग्राम-नगर आदि की रचना है वैसे ही यहां भी होना चाहिये। अनन्तर भगवान ने इन्द्र का स्मरण किया और स्मरणमात्र से इन्द्र ने आकर अयोध्यापुरी के बीच में जिनमंदिर की रचना करके चारों दिशाओं में जिनमन्दिर बनाये। कौशल, अंग, बंग आदि देश, नगर बनाकर प्रजा को बसाकर प्रभु की आज्ञा से इन्द्र स्वर्ग को चला गया। भगवान ने प्रजा को असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन छह कर्मों का उपदेश दिया। उस समय भगवान सरागी थे। क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना की और अनेकों पाप रहित आजीविका के उपाय बताये। इसीलिये भगवान युगादिपुरुष, आदिब्रह्मा, विश्वकर्मा, स्रष्टा, कृतयुग विधाता और प्रजापति आदि कहलाये। उस समय इन्द्र ने भगवान का साम्राज्य पद पर अभिषेक कर दिया।

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भगवान का वैराग्य और दीक्षा महोत्सव-
किसी समय सभा में नीलांजना के नृत्य को देखते हुए बीच में उसकी आयु के समाप्त होने से भगवान को वैराग्य हो गया। भगवान ने भरत का राज्याभिषेक करते हुए इस पृथ्वी को भारतइस नाम से सनाथ किया और बाहुबली को युवराज पद पर स्थापित किया। भगवान महाराज नाभिराज आदि को पूछकर इन्द्र द्वारा लाई गई सुदर्शनानामक पालकी पर आरूढ़ होकर सिद्धार्थकवन में पहुंचे और वटवृक्ष के नीचे बैठकर नमः सिद्धेभ्यः 'मन्त्र का उच्चारण कर पंचमुष्टि केशलोंच करके सर्व परिग्रह रहित मुनि हो गये। उस स्थान की इन्द्रों ने पूजा की थी इसीलिये उसका प्रयागयह नाम प्रसिद्ध हो गया अथवा भगवान ने वहां प्रकृष्ट रूप से त्याग किया था इसीलिये भी उसका नाम प्रयाग हो गया था1। उसी समय भगवान ने छह महीने का योग ले लिया। भगवान के साथ आये हुए चार हजार राजाओं ने भी भक्तिवश नग्न मुद्रा धारण कर ली।

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पाखंड मत की उत्पत्ति-
भगवान के साथ दीक्षित हुए राजा लोग दो-तीन महीने में ही क्षुधा, तृषा आदि से पीड़ित होकर अपने हाथ से वन के फल आदि ग्रहण करने लगे। इस क्रिया को देख वन देवताओं ने कहा कि मूर्खों! यह दिगम्बर वेष सर्वश्रेष्ठ अरहंत, चक्रवर्ती आदि के द्वारा धारण करने योग्य है। तुम लोग इस वेष में अनर्गल प्रवृत्ति मत करो। यह सुनकर उन लोगों ने भ्रष्ट हुये तपस्वियों के अनेकों रूप बना लिये, वल्कल, चीवर, जटा, दण्ड आदि धारण करके वे पारिव्राजक आदि बन गये। भगवान ऋषभदेव का पौत्र मरीचिकुमार इनमें अग्रणी गुरू परिव्राजक बन गया। ये मरीचि कुमार आगे चलकर अंतिम तीर्थंकर महावीर हुए हैं।

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भगवान का आहार ग्रहण-
जगद्गुरु भगवान छह महीने बाद आहार को निकले परन्तु चर्याविधि किसी को मालूम न होने से सात माह नौ दिन और व्यतीत हो गये अतः एक वर्ष उनतालीस दिन बाद भगवान कुरुजांगल देश के हस्तिनापुर नगर में पहुंचे। भगवान को आते देख राजा श्रेयांस को पूर्व भव का स्मरण हो जाने से राजा सोमप्रभ के साथ श्रेयांसकुमार ने विधिवत् पड़गाहन आदि करके नवधाभक्ति से भगवान को इक्षुरस का आहार दिया। वह दिन वैशाख शुक्ला तृतीया का था जो आज भी अक्षय तृतीयाके नाम से प्रसिद्ध है।

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भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति-
हजार वर्ष तपश्चरण करते हुए भगवान को पूर्वतालपुर के उद्यान में-प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे ही फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन केवलज्ञान प्रकट हो गया। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने बारह योजन प्रमाण समवसरण की रचना की। समवसरण में बारह सभाओं में क्रम से 1.सप्तऋद्धि समन्वित गणधर देव और मुनिजन 2. कल्पवासी देवियाँ 3. आर्यिकायें और श्राविकायें 4. भवनवासी देवियाँ 5. व्यन्तर देवियाँ 6. ज्योतिष्क देवियाँ 7. भवनवासी देव 8. व्यन्तर देव 9. ज्योतिष्क देव 10. कल्पवासी देव 11. मनुष्य और 12. तिर्यंच बैठकर उपदेश सुनते थे। पुरिमताल नगर के राजा श्री ऋषभदेव भगवान के पुत्र ऋषभसेन प्रथम गणधर हुए। ब्राह्मी भी आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिकाओं में प्रधान गणिनी हो गयीं। भगवान के समवसरण में 84 गणधर, 84000 मुनि, 350000 आर्यिकायें, 300000 श्रावक, 500000 श्राविकायं, असंख्यातों देव देवियाँ और संख्यातों तिर्यंच उपदेश सुनते थे।

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ऋषभदेव का निर्वाण-
जब भगवान की आयु चौदह दिन शेष रही तब कैलाश पर्वत ( अष्टापद ) पर जाकर योगों का निरोध कर माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन सूर्योदय के समय भगवान पूर्व दिशा की ओर मुँह करके अनेक मुनियों के साथ सर्वकर्मों का नाशकर एक समय में सिद्धलोक में जाकर विराजमान हो गये। उसी क्षण इन्द्रों ने आकर भगवान का निर्वाण कल्याणक महोत्सव मनाया था, ऐसे ऋषभदेव जिनेन्द्र सदैव हमारी रक्षा करें। भगवान के मोक्ष जाने के बाद तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष व्यतीत हो जाने पर चतुर्थ काल प्रवेश करता है। 

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प्रथम तीर्थंकर का तृतीय काल में ही जन्म लेकर मोक्ष भी चले जाना यह हुंडावसर्पिणी के दोष का प्रभाव है। महापुराण में भगवान ऋषभदेव के दशावतारनाम भी प्रसिद्ध हैं। 1. विद्याधर राजा महाबल 2. ललितांग देव 3. राजा वज्रजंघ 4. भोगभूमिज आर्य 5.श्रीधर देव 6. राजा सुविधि 7. अच्युतेन्द्र 8. वज्रनाभि चक्रवर्ती 9. सर्वार्थसिद्धि के अहमिन्द्र 10. भगवान ऋषभदेव। भगवान को ऋषभदेव, वृषभदेव, आदिनाथ, पुरुदेव और आदिब्रह्मा भी कहते हैं। 

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सौजन्य से : जिन-गुरु : अमृत-वाणी,

सामाजिक व्यवस्था और आत्मकल्याण का मार्गदर्शन दोनों ही ज्ञान प्रदानकर प्रभु ने प्राणिमात्र पर अनन्त उपकार किया है। हमें गर्व है, उन्हीं के आदर्शों पर चलकर जैन धर्म आज भी शाश्वत बना हुआ है। हमें गर्व है - लेकिन हम गर्वान्वित तभी महसूस कर सकते है, जब उनके आदर्शों पर चलें, चलने का प्रयत्न करें। शुभम् अस्तु।।

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