Friday, September 27, 2013

✿ इतनी शक्ति हमें देना जिनवर...कर्म बंधन को हम भी तोड़े... ✿
हम चले मोक्ष मार्ग पर हमसे...भूल कर भी कोई भूल हो ना !

दूर अज्ञान के हो अँधेरे...जिनवाणी का श्रवण करे हम...
हर बुराई से बचते रहे हम, राग द्वेष तो त्यागे हम..
बैर होना किसी का किसी से, भावना मन में बदले की होना...
हम चले मोक्ष मार्ग पर हमसे...भूल कर भी कोंई भूल हो ना !

Wednesday, September 4, 2013

Swagatam Parwadhiraj Paryushan


श्वेताम्बर परंपरा में 2 सितम्बर से 9 सितम्बर तक पर्युषण महापर्व की 
तथा दिगंबर परंपरा में 9 सितम्बर से 18 सितम्बर तक पर्युषण (दशलक्षण महापर्व) की आराधना की जायेगी।
पर्युषण जैन धर्म का सबसे बड़ा पर्व है और धर्म साधना के लिए सबसे उत्तम समय है .
सभी इस लाभ ले .. अपने वाणी का, खाने का,पहनने का , संयम कर के भी हम साधना कर सकते है .
रोजाना एक सामायिक जरुर करे l हो सके तो प्रतिक्रमण भी करे l जीवन में कष्टों को दूर करने के ये सबसे उत्तम समय है ..
जैन धर्म में सबसे उत्तम पर्व है पर्युषण। यह सभी पर्वों का राजा है। इसे आत्मशोधन का पर्व भी कहा गया है, जिसमंम तप कर कर्मों की निर्जरा कर अपनी काया को निर्मल बनाया जा सकता है।
पर्युषण पर्व को आध्यात्मिक दीवाली की भी संज्ञा दी गई है। जिस तरह दीवाली पर व्यापारी अपने संपूर्ण वर्ष का आय-व्यय का पूरा हिसाब करते हैं, गृहस्थ अपने घरों की साफ- सफाई करते हैं, ठीक उसी तरह पर्युषण पर्व के आने पर जैन धर्म को मानने वाले लोग अपने वर्ष भर के पुण्य पाप का पूरा हिसाब करते हैं। वे अपनी आत्मा पर लगे कर्म रूपी मैल की साफ-सफाई करते हैं।
यदि हम हर घड़ी हर समय अपनी आत्मा का शोधन नहीं कर सकते तो कम से कम पर्युषण के इन दिनों में तो अवश्य ही करें। .
यह त्याग का पर्व है.
मन से, वचन से और काय से त्यागने का पर्व.
सब मिलजुल कर इसे मनाएं.

Tuesday, August 13, 2013

सर्वदा सिद्ध मंत्र है णमोकार महामंत्र

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णमो अरिहंताणं,
णमो सिद्धाणं,
णमो आयरियाणं,
णमो उवज्झायाणं,
णमो लोए सव्व साहूणं।

यह नमस्कार महामंत्र सर्वोत्कृष्ट मंत्र है, मंत्राधिराज है। नमस्कार महामंत्र सर्वदा सिद्ध मंत्र है। इसमें समस्त रिद्धियां और सिद्धियां विद्यमान हैं। शान्ति, शक्ति, संपत्ति तथा बुद्धि के रूप में विश्व में पूजित शक्तियों का आधार नमस्कार महामंत्र ही है।

नमस्कार महामंत्र में जिन परमेष्ठी भगवंतों की आराधना की जाती है उनमें तप, त्याग, संयम, वैराग्य आदि सात्विक गुण होते हैं। अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, ये पांच परम इष्ट हैं। इनको नमन करना नवकार मंत्र है। मंत्र अपने आपमें रहस्य होता है, किंतु नवकार महामंत्र तो परम रहस्य है।

इसके बल पर दुख सुख में परिणत हो जाता है। नवकार मंत्र के स्मरण, चिंतन, मनन और उच्चारण से ही प्राणी जन्म-जन्मांतरों के पापों से मुक्त होकर शाश्वत सुख में निवास करने लगता है। नमस्कार महामंत्र माता-पिता, स्वामी, गुरु, नैत्र, वैद्य, मित्र, प्राणरक्षक, बुद्धि, दीपक, शांति, पुष्टि और महाज्योति है।

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यह मनुष्य की गरिमा को गति देने वाला एक मात्र विलक्षण मंत्र है। नमस्कार महामंत्र अनादि है। यह मंत्र गुण-सापेक्ष है। यह व्यक्ति को उन ऊंचाइयों पर प्रतिष्ठित करता है, जहां सामान्य व्यक्ति की पहुंच असंभव लगती है। नमस्कार (नवकार) महामंत्र में आगमों का सार निहित है। शास्त्र इसी से प्रस्फुटित हुए हैं।

एसो पंच णमोक्कारो, सव्व पाव-प्पणासणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं॥

नमस्कार महामंत्र को मंत्र शास्त्र ने 'सव्व पाव पणासणो'- समस्त पाप (क्लेश) का नाश करने वाला बताया है।

नमस्कार महामंत्र के सामर्थ्य का विश्लेषण करते हुए कर्मशास्त्र कहता है, - एक-एक अक्षर के उच्चारण से अनंत-अनंत कर्म का विलय होता है। नवकार (नमस्कार) महामंत्र सम्प्रदाय के अभिनिवेश से मुक्त शुद्ध आध्यात्मिक ऋचा है। श्रद्धा बल से संयुक्त नमस्कार महामंत्र से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास होता है।

नमस्कार महामंत्र का जप किसी भी परिस्थिति या अवस्था में किया जा सकता है। इसके स्मरण मात्र से दुख दूर होते हैं। समस्त साधु-भगवंत नवकार महामंत्र (णमोकार महामंत्र) का जाप करते हैं।

- विनोद बी. खाबिया

तेईसवें तीर्थंकर : भगवान पार्श्वनाथ

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आज से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व पौष कृष्ण एकादशी के दिन जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में हुआ था। उनके पिता का नाम अश्वसेन और माता का नाम वामादेवी था। राजा अश्वसेन वाराणसी के राजा थे। जैन पुराणों के अनुसार तीर्थंकर बनने के लिए पार्श्वनाथ को पूरे नौ जन्म लेने पड़े थे। पूर्व जन्म के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फलत: ही वे तेईसवें तीर्थंकर बने।

पुराणों के अनुसार पहले जन्म में वे मरुभूमि नामक ब्राह्मण बने, दूसरे जन्म में वज्रघोष नामक हाथी, तीसरे जन्म में स्वर्ग के देवता, चौथे जन्म में रश्मिवेग नामक राजा, पांचवें जन्म में देव, छठे जन्म में वज्रनाभि नामक चक्रवर्ती सम्राट, सातवें जन्म में देवता, आठवें जन्म में आनंद नामक राजा, नौवें जन्म में स्वर्ग के राजा इन्द्र और दसवें जन्म में तीर्थंकर बने।

दिगंबर धर्म के मतावलंबियों के अनुसार पार्श्वनाथ बाल ब्रह्मचारी थे, जबकि श्वेतांबर मतावलंबियों का एक धड़ा उनकी बात का समर्थन करता है, लेकिन दूसरा धड़ा उन्हें विवाहित मानता है। इसी प्रकार उनकी जन्मतिथि, माता-पिता के नाम आदि के बारे में भी मतभेद बताते हैं।

बचपन में पार्श्वनाथ का जीवन राजसी वैभव और ठाटबाठ में व्यतीत हुआ। जब उनकी उम्र सोलह वर्ष की हुई और वे एक दिन वन भ्रमण कर रहे थे, तभी उनकी दृष्टि एक तपस्वी पर पड़ी, जो कुल्हाड़ी से एक वृक्ष पर प्रहार कर रहा था। यह दृश्य देखकर पार्श्वनाथ सहज ही चीख उठे और बोले - 'ठहरो! उन निरीह जीवों को मत मारो।' उस तपस्वी का नाम महीपाल था। 

अपनी पत्नी की मृत्यु के दुख में वह साधु बन गया था। वह क्रोध से पार्श्वनाथ की ओर पलटा और कहा - किसे मार रहा हूं मैं? देखते नहीं, मैं तो तप के लिए लकड़ी काट रहा हूं।

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पार्श्वनाथ ने व्यथित स्वर में कहा- लेकिन उस वृक्ष पर नाग-नागिन का जोड़ा है। महीपाल ने तिरस्कारपूर्वक कहा - तू क्या त्रिकालदर्शी है लड़के.... और पुन: वृक्ष पर वार करने लगा। तभी वृक्ष के चिरे तने से छटपटाता, रक्त से नहाया हुआ नाग-नागिन का एक जोड़ा बाहर निकला। एक बार तो क्रोधित महीपाल उन्हें देखकर कांप उठा, लेकिन अगले ही पल वह धूर्ततापूर्वक हंसने लगा।

तभी पार्श्वनाथ ने नाग-नागिन को णमोकार मंत्र सुनाया, जिससे उनकी मृत्यु की पीड़ा शांत हो गई और अगले जन्म में वे नाग जाति के इन्द्र-इन्द्राणी धरणेन्द्र और पद्‍मावती बने और मरणोपरांत महीपाल सम्बर नामक दुष्ट देव के रूप में जन्मा।

पार्श्वनाथ को इस घटना से संसार के जीवन-मृत्यु से विरक्ति हो गई। उन्होंने ऐसा कुछ करने की ठानी जिससे जीवन-मृत्यु के बंधन से हमेशा के लिए मुक्ति मिल सके। कुछ वर्ष और बीत गए। जब वे 30 वर्ष के हुए तो उनके जन्मदिवस पर अनेक राजाओं ने उपहार भेजें। अयोध्या का दूत उपहार देने लगा तो पार्श्वनाथ ने उससे अयोध्या के वैभव के बारे में पूछा।

उसने कहा- 'जिस नगरी में ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ जैसे पांच तीर्थंकरों ने जन्म लिया हो उसकी महिमा के क्या कहने। वहां तो पग-पग पर पुण्य बिखरा पड़ा है।

इतना सुनते ही भगवान पार्श्वनाथ को एकाएक अपने पूर्व नौ जन्मों का स्मरण हो आया और वे सोचने लगे, इतने जन्म उन्होंने यूं ही गंवा दिए। अब उन्हें आत्मकल्याण का उपाय करना चाहिए और उन्होंने उसी समय मुनि-दीक्षा ले ली और विभिन्न वनों में तप करने लगे। चैत्र कृष्ण चतुर्दशी के दिन उन्हें कैवल्यज्ञान प्राप्त हुआ और वे तीर्थंकर बन गए। वे सौ वर्ष तक जीवित रहे। तीर्थंकर बनने के बाद का उनका जीवन जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में गुजरा और फिर श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन उन्हें सम्मेदशिखरजी पर निर्वाण प्राप्त हुआ।

भगवान पार्श्वनाथ का अर्घ्य 

जल आदि साजि सब द्रव्य लिया। 
कन थार धार न‍ुत नृत्य किया।
सुख दाय पाय यह सेवल हौं। 
प्रभु पार्श्व सार्श्वगुणा बेवत हौं।

Happy Independence Day - 15 August


स्वतंत्रता दिवस अमर रहे। जैनधर्म मुख्यतः कर्म पर आधारित है। यह न ही तो हिन्दु धर्म की तरह यह मानता है कि पत्नी के करवाचौथ के व्रत रखने से पति की आयु बढ जाती है एवं न ही इस्लाम की तरह यह मानता है कि बकरे कि बलि एक शहादत है जो पाक होती है.. जैन धर्म के अनुसार न ही तो किसी और के अच्छे कर्मो का फल हमे मिल सकता है और न ही हमारे बुरे कर्मो का फल किसी और को... जैन धर्म मे कर्म की स्पष्ट एवं व्यावहारिक परिभाषा है जो हमे मानवता, कर्तव्यपालन एवं न्याय की प्रेरणा देती है। अपने देश की रक्षा करना एवं शत्रु द्वारा आक्रमण करने पर उसका प्रतिकार करना भी हमारा कर्तव्य है। यद्यपि न्यायपूर्वक भी युद्ध करने मे हिँसा का पाप थोडा तो लगता ही है परंतु यह हिँसा संकल्पी नही होती अतः शत्रु के आक्रमण करने पर भी चुपचाप वैठे रहने से लगने वाले पाप की अपेक्षा कम हिँसक होती है.. हमारे भारत के वीर सैनिक इसके प्रत्यक्ष उदाहरण है, कई दशकोँ से केवल भारत ही एक ऐसा बडा देश है जिसने कभी किसी अन्य देश पर स्वयं आक्रमण नही किया.. जो व्यक्ति अपनी मातृभूमि से प्रेम नही करता वह न ही तो अपने धर्म का सम्मान कर सकता है एवं न ही मानवीय मूल्योँ को समझ सकता है।। अतः राष्ट्रधर्म का निर्वाह करना हमारा परम कर्तव्य है। राष्ट्रधर्म से तात्पर्य सीमा पर जाकर लडने से ही नही बल्कि अपनी क्षमता के आधार अपने देश, समाज, नगर एवं संस्थानो को स्वच्छ एवं सुव्यवस्थित रखने से है देश की संपत्ति हमारी अपनी संपत्ति है इसका अर्थ ये नही कि हम इसे तोडेँ फोडेँ जो चाहे करेँ बल्कि इसे सहेज कर रखेँ एवं सुरक्षा करेँ। आज भारतीयोँ मे आत्मसम्मान की बहुत कमी है वे अपने देश को बहुत पिछडा समझते है जबकि हमारे भारत की महिमा अनंत है यहाँ जो है वो कहीँ और नही। भारत की गंदी गलियाँ सडके कई भारतीयोँ की गंदी सोच का नतीजा है.. सडक से कचरा उठाकर कचरेदान मे डालने से कोई नीचा नही होता। इसी सोच के कारण जापान जर्मनी सिँगापुर जैसे छोटे देश इतने विकसित एवं स्वच्छ है। यदि इस स्वतंत्रता दिवस पर आप राष्ट्रभक्ति करना चाहते है तो आप ये छोटे कदम उठा सकते हैः- 1)अपने भारतीय होने पर गर्व, भारतमाता,राष्ट्रगान एवं अन्य राष्ट्रीय चिन्होँ के प्रति ह्रदय से सम्मान। 2)जल,भोजन, बिजली एवं अन्य संसाधनो का संरक्षण। 3)अपने घर,विद्यालय, आफिस के आसपास की सफाई का ध्यान एवं कभी खुले मे कचरा न फेकने का प्रण। 4)जरुरतमंदो की यथासंभव मदद करना। 5)यदि आप Student है तो अपने दोस्तोँ के साथ एवं Job करते है, तो अपने Co employees के साथ मिलकर सफाई अभियान, Re Cycling events का आयोजन। विश्वास कीजिए यदि आप इन कर्तव्योँ का पालन करतेँ है तो आप किसी सैनिक से कम नही है। प्रत्येक जैन एवं प्रत्येक भारतीय (हिँदु,मुस्लिम, सिख,इसाई) का यह कर्तव्य है कि वो अपने राष्ट्र के प्रति समर्पित हो। ।।जय जिनेन्द्र।। ।।जय भारती।। By Tatwarth Sutra

Thursday, May 30, 2013

खुश किस्मत हूँ जैन धरम में जनम मिला।

खुश किस्मत हूँ जैन धरम में जनम मिला।

खुश किस्मत हूँ महावीर का मनन मिला॥

मनन मिला है चोबीसों भगवानो का।

सार मिला है आगम-वेद-पुराणों का॥

जैन धरम के आदर्शो पर ध्यान दो।

महावीर के संदेशो को मान दो॥

महावीर वो वीर थे जिसने सिद्ध शिला का वरन किया।

मानव को मानवता सौंपी दानवता का हरण किया॥

गर्भ में जब माँ त्रिशला के महावीर प्रभु जी आए थे।

स्वर्ग में बैठे इन्द्रों के भी सिंघासन कम्पाये थे॥

जन्म लिया तो जन्मे ऐसे दोबारा जन्म मिले।

जन्म-जन्म के कर्म कटें भव जीवों को जिन-धर्म मिले॥

जैन धरम है जात नही है सुन लेना।

नस्लों को सौगात नही है सुन लेना॥

जैन धरम का त्याग से गहरा नाता है।

केवल जात का जैनी सुन लो जैन नही बन पता है॥

जैन धर्म नही मिल सकता बाजारों में।

नही मिलेगा आतंकी हथियारों में॥

नही मिलेगा प्यालों में मधुशाला में।

धर्म मिलेगा त्यागी चंदनबाला में॥

कर्मो के ऊँचे शिखरों को तोड़ दिया।

मानव से मानवताई को जोड़ दिया॥

बीच भंवर में फंसी नाव को पार किया।

सब जीवों को जीने का अधिकार दिया॥

शरमाते हैं जो संतो के नाम पर।

इतरायेंगे महिमा उनकी जानकर॥

जैन संत कोई नाम नही पाखंडो का।

ठर्रा-बीडी पीने वाले पंडो का॥

जैन संत की महिमा बड़ी निराली है।

त्याग की बगिया सींचे ऐसा माली है॥

साधू बनना खेल नही है बच्चो का।

तेल निकल जाता है अच्छे-अच्छों का॥

मानव योनि मिली है कुछ कल्याण करो।

बंद पिंजरे के आतम का उत्थान करो॥

शोर-शराबा करने से कुछ ना होगा।

और दिखावा करने से कुछ ना होगा॥

करना है तो महावीर को याद करो।

नर से नारायण बनने की जिनमे इच्छा होती है।
हर क्षण उनके जीवन में एक नई परीक्षा होती है॥
ऐसे वैसे जीव नही जो दुनिया से तर जाते हैं।
जग में रहके जग से जीते नाम अमर कर जाते हैं॥

पल-पल मत जीवन का यूँ बरबाद करो॥



Monday, April 29, 2013

उवसग्गहरं स्तोत्र - Uvasagharam Stotra



उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्म-घण मुक्कं ।
विसहर विस निन्नासं, मंगल कल्लाण आवासं ।।१।।


अर्थ : प्रगाढ़ कर्म – समूह से सर्वथा मुक्त, विषधरो के विष को नाश करने वाले, मंगल और कल्याण के आवास तथा उपसर्गों को हरने वाले भगवन पार्शवनाथ के में वंदना करता हूँ ! 


विसहर फुलिंग मंतं, कंठे धारेइ जो सया मणुओ ।
तस्स गह रोग मारी, दुट्ठ जरा जंति उवसामं ।।२।।


अर्थ : विष को हरने वाले इस मन्त्ररुपी स्फुलिंग को जो मनुष्य सदेव अपने कंठ में धारण करता है, उस व्यक्ति के दुश ग्रह, रोग बीमारी, दुष्ट, शत्रु एवं बुढापे के दुःख शांत हो जाते है ! 


चिट्ठउ दुरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहु फलो होइ ।
नरतिरिएसु वि जीवा, पावंति न दुक्ख-दोगच्चं।।३।।


अर्थ : हे भगवान्! आपके इस विषहर मन्त्र की बात तो दूर रहे, मात्र आपको प्रणाम करना भी बहुत फल देने वाला होता है ! उससे मनुष्य और तिर्यंच गतियों में रहने वाले जीव भी दुःख और दुर्गति को प्राप्त नहीं करते है ! 


तुह सम्मत्ते लद्धे, चिंतामणि कप्पपाय वब्भहिए ।
पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ।।४।।


अर्थ : वे व्यक्ति आपको भलीभांति प्राप्त करने पर, मानो चिंतामणि और कल्पवृक्ष को पा लेते हैं, और वे जीव बिना किसी विघ्न के अजर, अमर पद मोक्ष को प्राप्त करते है! 


इअ संथुओ महायस, भत्तिब्भर निब्भरेण हिअएण ।
ता देव दिज्ज बोहिं, भवे भवे पास जिणचंद ।।५।।


अर्थ : हे महान यशस्वी ! मैं इस लोक में भक्ति से भरे हुए हृदय से आपकी स्तुति करता हूँ! हे देव! जिन चन्द्र पार्शवनाथ ! आप मुझे प्रत्येक भाव में बोधि (रत्नत्रय) प्रदान करे!

Monday, March 25, 2013

बारह भावनाएं (बारह अनुप्रेक्षा)

बारह भावनाएं (बारह अनुप्रेक्षा)

१.अनित्य भावना

अनित्य भावना हमें सिखाती है…कि यह शरीर कि जवानी,घर-वार,राज्य संपत्ति,गाय-बैल,स्त्री के सुख,हाथी,घोड़े,परिवारीजन,कुटुम्बी जन..और आज्ञा को मानने वाले नौकर..और पांचो इन्द्रियों के भोग क्षण-भंगुर हैं..हमेशा नहीं रहते हैं..अनित्य हैं..अस्थायी हैं…यह सारे सुख आकुलता को देने वाले ही हैं..और दुःख को देने वाले ही हैं….यह सुख बिजली और इन्द्रधनुष कि चंचलता के सामान क्षण-भंगुर हैं..जिस प्रकार इन्द्र-धनुष और बिजली कुछ सेकंड के लिए ही आसमान में रहती हैं..उसी प्रकार यह इन्द्रिय जन्य सुख औ राज्य संपत्ति,गोधन,गृह,नारी,हाथी घोड़े थोड़े समय के लिए ही हैं…अनित्य हैं. जिस प्रकार विवेकी जीव झूठे भोजन को खाने में,चाहे कितना भी स्वादिष्ट हो..कभी ममत्व नहीं दिखता है..उसी प्रकार इस अनित्य भावना को भाने से जीव इस संसार के झूठे भोगों से,लाखो बार भोगे हुए भोगों से कभी ममत्व नहीं करता है..और न ही इनके वियोग में अरति करता और संयोंग में रति करता है यह अनित्य भावना भाने का फल है.

२.अशरण भावना

अशरण का अर्थ है कहीं भी शरण नहीं है….चाहे सुरेन्द्र,असुरेन्द्र,नागेन्द्र हों,खगेंद्र..नरेन्द्र हों….वह भी काल रुपी सिंह के सामने हिरण के सामान हैं…और उनको भी शरीर को त्याग कर…नई योनियों में सारे महल राज पाट छोड़ के जाना पड़ता है…और कर्मों का फल भोगना पड़ता है…..चाहे कैसी भी मणि हो,मंत्र हो,तंत्र हो,बड़े से बड़ी शक्ति हो,माता,पिता,देवी,देवता,सेना,औषधि,पुत्र…या कैसा भी चेतन या अचेतन पदार्थ हो…मृत्यु से कोई नहीं बचा सकता है….तथा मृत्यु से कोई नहीं बच सका है…कहीं भी शरण नहीं है.यह अशरण भावना है इस अशरण भावना को भाने से समता भाव जागृत होता है..और इस भावना को भाने वाला जीव शरीर त्याग के समय शोक नहीं करता है..और न ही किसी अन्य के देह-अवसान में शोक करता है….और न ही संसार के भौतिक-सुखों में रति करता है.

३.संसार भावना

यह जीव चारो गतियों में चाहे स्वर्ग हो,नरक हो,मनुष्य पर्याय हो,या तिर्यंच पर्याय हो…सब में दुःख ही दुःख भोगता है,कहीं भी इस संसार में सुख नहीं नहीं है..हर तरफ से हर दृष्टी से यह जीव चारो गतियों में दुःख भोगता है..और द्रव्य,क्षेत्र,भाव,भव और काल के परिवर्तन सहता है यानि की हर विधि से हर तरीके से संसार असार है,बिना किसी सार का है,हर जगह दुःख है..और इस संसार में कहीं भी सुख नहीं है…ऐसा चिंतन करना संसार भावना का लक्षण है. इस भावना को भाने वाला जीव कभी भी दुखी नहीं होता है..लेकिन संसार से उदासीन रहता है…वैरागी रहता है.

४.एकत्व भावना

सारे शुभ और अशुभ कर्मों के फल जितने भी हैं..यह जीव अकेला हो भोगता है..कोई साथ न देने वाला होता है…माता,पिता,पुत्र,नारी,दोस्त,रिश्तेदार अपनी कोई रिश्तेदारी नहीं निभाते हैं….सिर्फ स्वार्थ के लिए सगे बन जाते हैं…और स्वार्थ ख़त्म होने पर धोका दे जाते हैं…चाहे सुख हो या दुःख यह जीव अकेला ही सहन करता है…साथी-सगे तोह सब कहने मात्र के हैं.

५.अन्यत्व भावना

यह जीव और शरीर ,पानी और दूध के सामान एक दुसरे से मिले हुए हैं…लेकिन फिर भी दोनों-दोनों भिन्न-भिन्न हैं.एक नहीं हैं..अगर शरीर और आत्मा एक ही होती तोह क्या मुर्दे में जान नहीं होती,फिर ऐसा क्यों होता है कि आत्मे के शरीर से निकलते ही..सारा शरीर ऐसे ही पड़ा रह जाता है,कहाँ चली जाती है उसमें से चेतनता..यानि कि हम जीव हैं,शरीर नहीं हैं…जब शरीर और आत्मा अलग हैं तब जो पर-वस्तुएं,भौतिक वस्तुएं हैं..धन,घर,परिवार है राज्य है,सम्पदा है,पुत्र है,स्त्री है..वह मेरी कैसे हो सकती है…ऐसा चिंतन करना अन्यत्व भावना है

६.अशुचि भावना

यह शरीर मांस,खून,पीप,विष्ट,गंध्गी,मल,मूत्र,पसीना..अदि कि थैली है..और हड्डी,चर्बी अदि अपवित्र पदार्थों से मलिन है…और इस शरीर में से नौ द्वार में से निरंतर मैल निकलता रहता है…और इतना ही नहीं इस शरीर के स्पर्श से पवित्र पदार्थ भी अपवित्र हो जाते हैं…बहुत गंध है यह शरीर..और ऐसे शरीर से कौन प्रेम करना चाहेगा,कौन मोह रखना चाहेगा…ऐसा चिंतन करना अशुचि भावना है.

७.आश्रव भावना

मन-वचन और काय के निमित्त से आत्मा mein हलन-चलन-कम्पन रूप चंचलता को आश्रव कहते हैं..आश्रव से कर्म आते हैं..यह आश्रव बहुत दुःख दाई है..क्योंकि इसकी वजह से आत्मा के प्रदेश कर्मों से बंधते हैं..जिससे आत्मा का अनंत सुख वाला स्वाभाव ढक जाता है,ज्ञान दर्शन स्वाभाव ढक जाता है..इसलिए बुद्धिमान पुरुष इस आश्रव से दूर रहने के प्रयत्न में लगे रहते हैं..इससे मुक्त होने की चाह रखते हैं..मिथ्यादर्शन,अविरत और कषाय और प्रमाद के साथ आत्मा में परवर्ती नहीं करते हैं..और कम करते हैं.ऐसा चिंतन करना आश्रव भावना है.

८.संवर भावना

जिन्होंने पुण्य और पाप नहीं किया,शुभ और अशुभ कर्मों के फल में रति और अरति नहीं कि..शुभ और अशुभ भाव नहीं किये….और आत्मा के अनुभव में मन को लगाया..आत्मा स्वाभाव में लीं हुए..या लीं होने..वह आते हुए कर्मों को आत्मा के प्रदेशों में मिल जाने से रोक लेंगे..कर्मों के आश्रव द्वार को बंद करेंगे,बंध को रोक लेंगे…और संवर को प्राप्त करके आकुलता रहित सुख का साक्षात्कार करेंगे..ऐसी भावना भाना संवर भावना है.

९.निर्जरा भावना

जब कर्म अपना समय आने पर फल देने लग जाए..मतलब अपने अपने समय पर फल देने लग जाएँ..और फल देकर चले जाएँ..यह तो अकाम निर्जरा है..या विपाक निर्जरा..इससे इस जीव का कोई भी लाभ नहीं है..कोई भी काम सिद्ध नहीं होता है..जब कर्म बिना फल दिए ही चले जाए..जो सिर्फ सम्यक तप के माध्यम से संभव है..तोह अविपाक निर्जरा है..सकाम निर्जरा है..जो शिव सुख को,मोक्ष सुख को आकुलता रहित सुख को प्राप्त कराती है

१०.लोक भावना

जहाँ ६ द्रव्यों का निवास है,वह तीन लोक हैं..जो शास्वत ६ द्रव्यों से बना हुआ है..इसको न किसी ने बनाया है..न कोई धारण कर रहा है,न कोई चला रहा है..और न ही कभी नष्ट होंगे..और ६ द्रव्य भी शास्वत हैं..अनादि निधन हैं यह तीनों लोक ..इन तीनों लोकों में यह जीव समता भाव के अभाव में..संतोष के अभाव में,वीतरागता और वीतराग भावों के अभाव में यह जीव संसार में दुःख सहता है…और जन्म मरण के दुखों को सहन करता है…वीतराग अवस्था पाने से यह जीव आकुलता रहित सुख को प्राप्त करता है.

११.बोधि दुर्लभ भावना

इस जीव ने नवमें ग्रैवेयक के विमानों तक ..जो सोलह स्वर्गों से भी ऊपर हैं..वहां भी पर्याय ली..और एक बार नहीं अनंत बार यहाँ पर्याय ले कर अह्मिन्द्र,अदि देवों तक का पद पाया…लेकिन जब भी आत्मा के ज्ञान के बिना इस जीव ने सुख लेश मात्र नहीं पायो..नरक,त्रियंच मनुष्य की योनियों में दुःख की बात करें तोह चलता है..लेकिन स्वर्गों में भी यह जीव दुखी रहा..और वहां भी लेश मात्र भी सुख ग्रहण नहीं किया…जो की सम्यक ज्ञान के अभाव की वजह से था…और ऐसे दुर्लभ सम्यक ज्ञान को मुनिराज ने अपने ही आत्मा स्वरुप में साधा हुआ..कहीं बाहार से नहीं खोजा है..इसलिए संसार में सबकुछ सुलभ है,घर,परिवार,कुटुंब,उत्तम कुल, विद्या, धन ,पैसा,बुद्धि,होसियारी…यह सब सम्यक ज्ञान की दुर्लभता के आगे सुलभ ही हैं..और यह सम्यक ज्ञान अपार सुख को प्राप्त करने वाला है.आकुलता रहित सुख को प्राप्त करता है.कर्मों का जोड़ इस सम्यक ज्ञान रुपी छैनी के द्वारा ही तोडा जाता है.

12.धर्म भावना

जो भाव पवित्र हैं और मोह से रहित हैं..मिथ्यात्व(गृहीत और अग्रहित) से रहित हैं.वह सम्यक ज्ञान,सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र हैं और यह ही धर्म है..जब इस धर्म को जब यह जीव साधता है..धारण करता है..तोह अचल सुख को प्राप्त प्राप्त करता है..यानि की जहाँ मोह-मिथ्यात्व है वहां धर्म नहीं है…ऐसा चिंतन करना धर्म भावना है Baraah Bhavana – 12 Inspirations (बारह भावना)


राजा राणा छत्रपति हाथिन के असवार, मरना सबको एक दिन अपनी अपनी बार.
RAAJAA RAANAA CHATRAPATI, HAATHIN KE ASVAAR, MARNAA SABKO EK DIN APNI APNI BAAR.
Every one must die one day including the high and mighty.

दल बल देवी देवता मात पिता परिवार, मरती विरियाँ जीव को कोई न राखन हार.
DAL BAL DEVI DEVTAA MAAT PITAA PARIVAAR, MARTEE VIRIYAA JEEV KO KOEE NA RAAKHAN HAAR.
No one can defy death including the strongest, divine beings, parents and family.

दाम बिना निर्धन दुखी तृष्णा वश धनवान, कहूं न सुख संसार में सब जग देख्यो छान.
DAAM BINAA NIRDHAN DUKHEE TRISHNAA VASH DHANVAAN, KAHOO NA SUKH SANSAAR ME SAB JUG DEKHYO CHAAN.
Poverty is the root cause of unhappiness for poor. Greed is the root cause of unhappiness for Wealthy. There is no happiness in this world.

आप अकेलो अवतरे मरे अकेलो होय, यों कबहूं इस जीव को साथी सगा न कोय.
AAP AKELO AVTARE MARE AKELO HOY, YO KABHU ES JEEV KO SAATHI SAGAA NA KOY.
Every one comes alone in this world and dies alone as well. All worldly relations are left behind.

जहाँ देह अपनी नहीं तहाँ न अपनो कोय, घर संपति पर प्रगट ये पर हैं परिजन लोय.
JAHAA DEH APNI NAHEE TAHAA NA APNO KOY, GHAR SAMPATI PAR PRAGAT YE PAR HAI PARIJAN LOY.
In this material world, everything is left behind and nothing belongs to anyone.

दिपे चाम चादर मढ़ी हाड़ पींजरा देह, भीतर या सम जगत में और नहीं घिन गेह.
DIPE CHAAM CHAADAR MADHI HAAD PEENJARAA DEH, BHEETAR YAA SAM JAGAT ME AUR NAHEE GHIN GEH.
Like a beautiful body covered with skin, hides bones in the empty cage, similarly, inside of the glittering world lay deep ocean of emptiness.

मोह नींद के जोर जग वासी घूमे सदा, कर्म चोर चहुँ ओर सरवस लूटे सुध नहीं.
MOH NEEND KE JOR JUG VAASEE GHOOME SADAA, KARM CHOR CHAHU OR SARVAS LOOTE SUDH NAHEE.
Worldly attachments blindly rob a person of everything.

सत गुरु देय जगाय मोह नींद जब उपशमै, तब कछु बनहि उपाय कर्म चोर आवत रूकै.
SAT GURU DEY JAGAAY MOH NEEND JAB UPSHAMAI, TAB KACHU BANHI UPAAY, KARM CHOR AAVAT ROOKAI.
A true teacher helps a person to overcome worldly attachments and lead him/her on the path of self realization.

ज्ञान दीप तप तेल भर घर शोधे भ्रम छोर, या विधि बिन निकसैं नहीं पैठे पूरब चोर.
GYAAN DEEP TAP TEL BHAR GHAR SHODHE BHRAM CHOOR, YAA VIDHI BIN NIKSAI NAHEE PAITHE PURAB CHOR.
Meditation helps to light up inner self, remove ignorance and leads to self realization.

पंच महा व्रत संचरण समिति पंज परकार, प्रबल पंच इन्द्रिय विजय धार निर्जरा सार.
PANCH MAHAA VRT SNCHARAN SAMITI PANJ PARKAAR, PRABAL PANCH ENDRIYA VIJAY DHAAR NIRJARAA SAAR.
Those following five vows of Jain code of conduct help them to conquer inner self.

चौदह राजु उतंग नभ लोक पुरुष संठान, तामें जीव अना दिते भरमत हैं बिन ज्ञान.
CHOUDAH RAJU UTANG NABH LOK PURUSH SANTHAAN, TAAME JEEV ANAA DITAY BHARMAT HAI BIN GYAAN.
The high and mighty may rule others but without self enlightenment life is unfulfilled.

धन कन कंचन राज सुख सबहि सुलभ कर जान, दुर्लभ है संसार में एक जथा-रथ ज्ञान.
DHAN KAN KANCHAN RAAJ SUKH SABHI SULABH KER JAAN, DURLABH HAI SANSAAR ME EK JATHAA-RATH GYAAN.
Having wealth and ruling over kingdom is easy but self realization and enlightenment is most difficult to achieve.

जाँचे सुर तरु देय सुख चिंतत चिंता रैन, बिन जाचै बिन चिंतये धर्म सकल सुख दैन.
JAANCHE SUR TARU DEY SUKH CHINTAN CHINTAA RAIN, BIN
JAANCHE BIN CHINTAYE DHARM SAKAL SUKH DAIN.
All may be absorbed in worries but the one who follows the righteous path attains self realization, enlightenment and salvation.

दीपावली जैन पूजन विधि

  दीपावली जैन पूजन विधि Ø   स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र परिधान पहनकर पूर्व या उत्तर दिशा सन्मुख शुद्ध आसन पर बैठकर आसन के सामने ...