Tuesday, February 26, 2013

जैन धर्म की संक्षिप्त जानकारी


  •  जिससे आत्मा परम पवित्र बनता है उसे धर्म कहते है।

    सत्य, अहिंसा, स्वरुप शाश्वत परम पवित्र आधयात्मिक परणति जैन धर्म है।

    जैन धर्म के मूलाधार तीन है- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, एवं सम्यक चारित्र। इन तीनो की एकता ही मोक्ष मार्ग है।

    आत्मा-परमात्मा एवं वस्तु स्वरूप के प्रति सत्य आस्था ही सम्यग्दर्शन है।

    संशय रहित निज-पर को जानने वाला यथार्थ ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है।

    रागद्वेष विमुख पद के योग्य आत्मानुमुखी आचरण ही सम्यक चारित्र है।

    सत्य और परिपूर्ण अहिंसा रुप आचरण ही धर्म का मूलान्त है। इनके अभाव मे धर्म का शुभारम्भ भी नही होता।

    भगवान सर्वज्ञ,वीतरागी एवं हितोपदेशी है, संसार के कर्ता हर्ता नही।

    संसार के प्रत्येक प्राणी अपने भाग्य का स्वयं विधाता है और अपने अच्छे बुरे कर्मो का फ़ल स्वयं ही भोगता है।

    संसार का प्रत्येक पदार्थ प्रक्रति द्वारा स्रजित, विसर्जित है, इसका कोई कर्ता हर्ता नही है।

    जन्म से कोई भी पूज्य नही होता है पुज्यता वीतरागता के साथ रत्नत्रय धारण करने से प्रगट होती है।

    विश्व के समस्त भव्य आत्माओं मे परमात्मा बनने की शक्ति है।

    चौबीस तीर्थंकरो का स्याद्वादरूप धर्मोपदेश विश्व के प्राणी मात्र के लिये है, जो भी इसको अपने जीवन मे धारण करेगा वही मुक्ति सुख को प्राप्त कर सकता है, अतः विश्व के सभी वर्ग के लोग जैन धर्म को धारण कर सकते है।

    'जियो और जीने दो'जैन धर्मे का विश्व के प्राणी मात्र के लिये भाई-चारा प्रेम के लिये नैतिक सन्देश है।

    भगवान की भक्ति, पूजन, आराधना, तीर्थवन्दना एवं गुरु उपासना करने से पाप कर्मो का प्रक्षालन तथा पुण्य की प्राप्ति होती है,अतः प्रत्येक प्राणी को प्रतिदिन देव, गुरु व स्याद्वाद रूप धर्म की आराधना करनी चाहिए।

    हमे पापो से घ्रणा करनी चाहिए और पापियो को धर्मोपदेश सुना-सुमझाकर सदाचारी बनाना चाहिए।

    माता-पिता, गुरुजन एवं व्रद्वो की सेवा,भक्ति, दान-पूजा, परोपकार, दीन दुःखियों का उत्थान, भाई चारा, वात्सल्य, प्रेम भावना हमारा नैतिक धर्म है।

    सत्य-संगठन-सदाचार एवं शाकाहार के साथ पदानुसार अपने कर्तव्य का पालन तथा पुरूषार्थ करना हमारा परम्परागत धर्म हैं।

    णमोकार महामंत्र जैन धर्म का मूलमंत्र है। इस मंत्र मे वीतराग गुण विभूषित पंच परमेष्ठियों को नमस्कार किया है, किसी व्यक्ति विशेष को नहीं।

    जैन धर्म मे व्यक्ति विशेष की पूजन नहीं है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, एवं सम्यक चारित्र से विभूषित वीतराग विज्ञानी, गुणी महापुरूषों की आराधना, पूजन, भक्ति की जाती हैं।

    सुख-शांति के मार्ग में बाधक हमारे ग्यारह शत्रु है। उनके नाम इस प्रकार हैं- 1. क्रोध 2. मान 3. माया 4. लोभ 5. हिंसा 6. झूठ 7. चोरी 8. कुशील 9. परिग्रह 10. राग 11. द्वेष

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