Wednesday, February 27, 2013

अहिंसामूर्ति भगवान महावीर



 अहिंसा, संयम एवं तपोमय आदर्श जीवन के प्रतीक, भगवान महावीर को इस संतप्त विश्व में स्मरण कर, उनके जीवनादर्शों के चिन्तन एवं पालन की जितनी आवश्यकता आज उपस्थित हुई है, उतनी संभवत: पहले कभी नहीं रही होगी। इसलिए आज हम पुन:, हमारे सुंदर अतीत की इस परम विभूति की गौरव-गाथा गाकर, अपने राष्ट्रीय व्यक्तित्व को टटोलें और पुन: उनके मंगल मार्ग पर चलने का संकल्प करें।

भारत में श्रमण और वैदिक, ये दो परम्पराएं बहुत प्राचीनकाल से चली आ रही  हैं। इनका अस्तित्व ऐतिहासिक काल से आगे प्राग्-ऐतिहासिक काल मे भी जाता है। भगवान ऋषभ प्राग्-ऐतिहासिक काल मे हुए थे। वे जैन परम्परा के आदि तीर्थंकर थे और धर्म-परम्परा के भी प्रथम प्रवर्तक थे। भगवान महावीर चौबीसवें और इस युग के अन्तिम तीर्थंकर के रूप में मान्य हैं।

भगवान महावीर का जन्म-स्थान, गंगा के दक्षिण में और पटना से 27 मील उत्तर में, आया बसाड़ नाम का गांव है। वहां क्षत्रिय कुंड और कुण्डपुर नाम के दो उपनगर थे। ईसा से 599 वर्ष पूर्व, चैत्र शुक्ला त्रयोदशी के पावन दिन, भगवान महावीर ने पिता सिद्धार्थ एवं माता महारानी त्रिशला के यहाँ जन्म लिया।

तीस वर्ष की यौवनावस्था में, महावीर पूर्ण संयमी बनकर श्रमण बन गये। दीक्षित होते ही उन्हें मन:पर्यव ज्ञान हो गया। दीक्षा के बाद, महावीर प्रभु ने घोर तपस्या एवं साधना की। अनेक महान उपसर्गों को अपूर्व समता भाव से सहन किया। ग्वालों का उपसर्ग, संगम देव के कष्ट, शूलपाणि यक्ष का परिषह, चण्डकौशिक का डंक, व्यन्तरी के उपसर्ग, भगवान महावीर की समता एवं सहनशीलता के असाधारण उदाहरण हैं।

साढ़े बारह वर्ष की अपूर्व साधना के प’चात, प्रभु महावीर को केवलज्ञान की उपलब्धि हुई।

भगवान महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न होते ही, देवगणों ने पंचदिव्यों की वृष्टि की और सुन्दर समवसण की रचना की। भगवान के समवसण में आकश मार्ग से देव-देवियों के समुदाय आने लगे। प्रमुख पंडित इंद्रभूति को जब मालूम हुआ, कि नगर के बाहर सर्वज्ञ महावीर आये हैं और उन्हीं के समवसण में, ये देव गण जा रहें हैं, तो उनके मन मे अपने पांडित्य का अहंकार जाग्रत हो उठा। वे भगवान के अलौकिक ज्ञान की परख करने और उनको शास्त्रार्थ में पराजित करने की भावना से समवसण में आये।

भगवान की शांत मुद्रा एवं तेजस्वी मुख-मण्डल को देखकर तथा उनकी अमृत वाणी का पान करने से इंद्रभूति के सब अन्तरंग संशयों का छेदन हो गया और वे उसी समय अपने शिष्यों सहित भगवान के चरणों में दीक्षित हो गये। इसी प्रकार अन्य दस विद्वान भी अपनी शिष्य मण्डली के साथ उसी दिन दीक्षित हुए। ये ग्यारह प्रमुख शिष्य ही गणधर कहलाये।

भगवान महावीर ने अहिंसा, संयम, तप, पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति, अनेकान्त, अपरिग्रह एवं आत्मवाद का उपदेश दिया। अवतारवाद की मान्यता का खण्डन करते हुए, उत्रारवाद प्रस्तुत किया। यज्ञ के नाम पर होने वाली पशु एवं नरबलि का घोर विरोध किया तथा सभी वर्ग के सभी जाति के लोगों को धर्मपालन का अधिकार बतलाया। जाति-पांति व लिंग के भेदभाव को मिटाने हेतु उपदेश दिये। चंदनबाला प्रकरण महावीर की स्त्री जाति के प्रति संवेदना का विशेष उदाहरण है।

महावीर नें 30 वर्षों तक, तीर्थंकर के रूप में विचरण कर, जिन धर्म का सदुपदेश दिया। आपका अन्तिम चातुर्मास पावापुरी में हुआ। जब वर्र्षाकाल का चौथा मास चल रहा था, कार्तिक कृष्णा अमावस्या के दिन, भगवान ने रात्रि में चार  अघाति कर्मों का क्षय किया और पावापुरी में परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। पावापुरी बिहारशरीफ के सन्निकट है। यहां पर सुन्दर एवं मनोरम जल-मंदिर है। जैन लोग इसे भगवान महावीर की पुण्यभूमि मानते हैं और इस पवित्र तीर्थभूमि का दर्शन कर अपने जीवन को कृतकृत्य समझते हैं। निर्वाण के समय भगवान की आयु 72 वर्र्ष थी।

भगवान महावीर प्रतिशोधात्मक हिंसा, प्रतीकारात्मक हिंसा और आशंकाजनित हिंसा से उपरत थे, अनर्थ हिंसा की तो बात ही कहां ? भगवान महावीर अपने साधना काल में, प्राय: मौन रहते थे। अधिकांश समय ध्यानस्थ रहते और अनाहार की तपस्या करते थे। वे अपने विशष्ट साधना बल के आधार पर कैवल्य को प्राप्त हुए।

जन्म के पूर्व गर्भकाल में ही, महावीर ने अहिंसा को आत्मसात~ कर लिया था। जैन साहित्य में उनके गर्भकाल का एक रोचक प्रसंग प्राप्त होता है। गर्भस्थ शिशु वद्र्धमान ने एक बार विचार किया कि, जब मैं माँ के उदर में स्पंदन-कंपन करता हूँ, तो इससे मेरी माँ को कष्ट तो होता होगा। क्या ही अच्छा हो, कि मैं स्पन्दन को बंद कर दूं , ताकि मेरी माँ को कष्ट न हो। शिशु ने वैसा ही किया। शरीर को स्थिर कर लिया। मानो कि कायगुप्ति और कायोत्सर्ग का प्रयोग किया हो। उधर माँ त्रिशला ने अनुभव किया कि, गर्भ का स्पंदन बंद हो गया। लगता है गर्भ मृत हो गया है। इस अनुमान ने माँ को शोक सरोवर में निमग्न कर दिया।

कुछ समय बाद गर्भस्थ शिशु ने वशिष्ट ज्ञान से माँ की स्थिति को देखा तो पता चला कि काम तो उल्टा ही हो गया। किया तो अच्छे के लिए और हो गया कुछ अन्यथा। उसने पुन: स्पंदन शुरू किया तब माँ को पता चला कि गर्भ सुरक्षित है। वातावरण पुन: हर्षमय बन गया। उस समय गर्भस्थ शिशु ने चिंतन किया कि, मेरे स्पंदन बंद कर देने मात्र से माँ को इतना कष्ट हो सकता है, तो यदि मैं माँ-पिता की विद्यमानता में संन्यास का पथ स्वीकार करूंगा तो उन्हें कितना कष्ट होगा। इसलिए, मैं संकल्प करता हूँ कि अपनी माता-पिता की विद्यमानता में, मैं संन्यास स्वीकार नहीं करूंगा। यह प्रसंग प्रभु महावीर के गर्भकाल में होने वाली करूणा और मातृ-पितृ भक्ति का सशक्त और विरल उदाहरण है।

भगवान श्री महावीर का साधनाकाल घोर कष्टमय रहा था। शूलपाणि यक्ष और संगम देव ने एक-एक रात, प्रभु को बीस-बीस मारणान्तिक कष्ट दिये। जिनको पढ़ने और सुनने मात्र से काया कांप उठती है। शास्त्रों के अनुसार, अभिनिष्क्रमण के बाद कई महीनों तक महावीर की देह को जहरीले मच्छर, कीड़े आदि नोचते रहे और उनका रक्त पीते रहे। लाढ़ देश के अनार्य लोगों ने भगवान को बहुत यातनाएं दी। मारा, पीटा ’शिकारी कुत्तों को पीछे लगाया। चण्ड कौशिक सांप ने काटा। ग्वालों ने कानों में किल्लियां ठोकी, पावों में आग जलाकर खीर पकाई, फिर भी समता के सुमेरू महावीर अडोल और अकम्प रहे। ध्यानयोग, तपोयोग और अन्तमौंन में लीन रहे। उनकी चेतना सदा अस्पर्श योग के ’शिखर पर प्रतिष्ठित रही। वे आत्केन्द्रित थे।
महावीर का पूरा साधना काल समता की साधना में बीता। उनके सामने अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही प्रकार के परीषह उत्पन्न हुए। उन्होंने अपनी सहिष्णुता के द्वारा उन परीषहों को निरस्त किया। उनकी समता की साधना थी।

शोध विद्वानों के मत से महावीर को कोई ऐसा द्विव्य ज्ञान प्राप्त था, जिससे, वह अपने प्राण उर्जा को चेतना के किसी ऐसे बिन्दु पर केन्द्रित कर लेते थे, जिससे शरीर पर घटित होने वाली किसी भी घटना का उनकी चेतना पर प्रभाव नहीं पड़ता था। वह गुण उनका विलक्षण अस्पर्शयोग ही था।

महावीर का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धान्त अनेकान्तवाद व स्यादवाद है। महावीर ने कहा है, कि सभी मत और सिद्धान्त पूर्ण सत्य या पूर्ण असत्य नहीं हैं। सापेक्ष दृष्टि से विचार करने पर सभी दृष्टिकोण सत्य ही प्रतीत होते हैं। इसलिए, अपने-अपने मत या सिद्धान्त पर अड़े रहने से संघर्ष बढ़ता है। आज जो वर्ग-संघर्ष, अशान्ति और शस्त्रों का अन्धानुकरण बढ़ रहा है, उसे रोकने में अनेकान्त की दृष्टि, सहअस्तित्व की भावना महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है। महावीर ने कहा था, कि प्रत्येक इन्सान यदि अपने स्वरूप को पहचान ले, तो स्वयं भगवान बन जाता है। महावीर का भगवान सृष्टि संचालक हीं हैं। महावीर का भगवान भगवत्ता को प्राप्त इन्सान है। महावीर ने स्वयं को पहचानने के तीन सूत्र दिये एकांत, मौन, और घ्यान। महावीर ने तप भी किया था-उपवास का तप। उपवास यानी, आत्मा में वास करना। भोजन छूटना उसका सहज परिणाम था। महावीर के लिए ध्यान और उपवास अलग अलग नहीं थे। ध्यान और उपवास दोनों का ही अर्थ है, आत्म केद्रित अवस्था।

महावीर की साधना हमारे जीवन की प्रयोगभूमि है। हम केवल महावीर के अनुयायी बनकर ना रह जाये। स्वंय के भीतर ध्यान की ज्योति जलाकर महावीर को पुर्नजीवित करें। जो महावीर चले गये, वो लौटकर नही आ सकते। किंतु हमारे भीतर का महावीर जरूर जाग सकता हैं। महावीर ने कहा था-अप्पणा सच्चमे सेज्जां मेत्ति भूएसु कप्पए, स्वयं सत्य को खोजें एवं सबके साथ मैत्री करें। महावीर ने कहा था, जीओ और जीने दो। इस प्रकार महावीर के पुराने सिद्धान्तों की आज भी उतनी ही आव’यकता है, जितनी उस समय थी। आवश्कता सिर्फ उन्हें गहराई से समझकर अपनाने की है।

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