Tuesday, August 13, 2013

सर्वदा सिद्ध मंत्र है णमोकार महामंत्र

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णमो अरिहंताणं,
णमो सिद्धाणं,
णमो आयरियाणं,
णमो उवज्झायाणं,
णमो लोए सव्व साहूणं।

यह नमस्कार महामंत्र सर्वोत्कृष्ट मंत्र है, मंत्राधिराज है। नमस्कार महामंत्र सर्वदा सिद्ध मंत्र है। इसमें समस्त रिद्धियां और सिद्धियां विद्यमान हैं। शान्ति, शक्ति, संपत्ति तथा बुद्धि के रूप में विश्व में पूजित शक्तियों का आधार नमस्कार महामंत्र ही है।

नमस्कार महामंत्र में जिन परमेष्ठी भगवंतों की आराधना की जाती है उनमें तप, त्याग, संयम, वैराग्य आदि सात्विक गुण होते हैं। अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, ये पांच परम इष्ट हैं। इनको नमन करना नवकार मंत्र है। मंत्र अपने आपमें रहस्य होता है, किंतु नवकार महामंत्र तो परम रहस्य है।

इसके बल पर दुख सुख में परिणत हो जाता है। नवकार मंत्र के स्मरण, चिंतन, मनन और उच्चारण से ही प्राणी जन्म-जन्मांतरों के पापों से मुक्त होकर शाश्वत सुख में निवास करने लगता है। नमस्कार महामंत्र माता-पिता, स्वामी, गुरु, नैत्र, वैद्य, मित्र, प्राणरक्षक, बुद्धि, दीपक, शांति, पुष्टि और महाज्योति है।

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यह मनुष्य की गरिमा को गति देने वाला एक मात्र विलक्षण मंत्र है। नमस्कार महामंत्र अनादि है। यह मंत्र गुण-सापेक्ष है। यह व्यक्ति को उन ऊंचाइयों पर प्रतिष्ठित करता है, जहां सामान्य व्यक्ति की पहुंच असंभव लगती है। नमस्कार (नवकार) महामंत्र में आगमों का सार निहित है। शास्त्र इसी से प्रस्फुटित हुए हैं।

एसो पंच णमोक्कारो, सव्व पाव-प्पणासणो।
मंगलाणं च सव्वेसिं, पढमं हवइ मंगलं॥

नमस्कार महामंत्र को मंत्र शास्त्र ने 'सव्व पाव पणासणो'- समस्त पाप (क्लेश) का नाश करने वाला बताया है।

नमस्कार महामंत्र के सामर्थ्य का विश्लेषण करते हुए कर्मशास्त्र कहता है, - एक-एक अक्षर के उच्चारण से अनंत-अनंत कर्म का विलय होता है। नवकार (नमस्कार) महामंत्र सम्प्रदाय के अभिनिवेश से मुक्त शुद्ध आध्यात्मिक ऋचा है। श्रद्धा बल से संयुक्त नमस्कार महामंत्र से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास होता है।

नमस्कार महामंत्र का जप किसी भी परिस्थिति या अवस्था में किया जा सकता है। इसके स्मरण मात्र से दुख दूर होते हैं। समस्त साधु-भगवंत नवकार महामंत्र (णमोकार महामंत्र) का जाप करते हैं।

- विनोद बी. खाबिया

तेईसवें तीर्थंकर : भगवान पार्श्वनाथ

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आज से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व पौष कृष्ण एकादशी के दिन जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में हुआ था। उनके पिता का नाम अश्वसेन और माता का नाम वामादेवी था। राजा अश्वसेन वाराणसी के राजा थे। जैन पुराणों के अनुसार तीर्थंकर बनने के लिए पार्श्वनाथ को पूरे नौ जन्म लेने पड़े थे। पूर्व जन्म के संचित पुण्यों और दसवें जन्म के तप के फलत: ही वे तेईसवें तीर्थंकर बने।

पुराणों के अनुसार पहले जन्म में वे मरुभूमि नामक ब्राह्मण बने, दूसरे जन्म में वज्रघोष नामक हाथी, तीसरे जन्म में स्वर्ग के देवता, चौथे जन्म में रश्मिवेग नामक राजा, पांचवें जन्म में देव, छठे जन्म में वज्रनाभि नामक चक्रवर्ती सम्राट, सातवें जन्म में देवता, आठवें जन्म में आनंद नामक राजा, नौवें जन्म में स्वर्ग के राजा इन्द्र और दसवें जन्म में तीर्थंकर बने।

दिगंबर धर्म के मतावलंबियों के अनुसार पार्श्वनाथ बाल ब्रह्मचारी थे, जबकि श्वेतांबर मतावलंबियों का एक धड़ा उनकी बात का समर्थन करता है, लेकिन दूसरा धड़ा उन्हें विवाहित मानता है। इसी प्रकार उनकी जन्मतिथि, माता-पिता के नाम आदि के बारे में भी मतभेद बताते हैं।

बचपन में पार्श्वनाथ का जीवन राजसी वैभव और ठाटबाठ में व्यतीत हुआ। जब उनकी उम्र सोलह वर्ष की हुई और वे एक दिन वन भ्रमण कर रहे थे, तभी उनकी दृष्टि एक तपस्वी पर पड़ी, जो कुल्हाड़ी से एक वृक्ष पर प्रहार कर रहा था। यह दृश्य देखकर पार्श्वनाथ सहज ही चीख उठे और बोले - 'ठहरो! उन निरीह जीवों को मत मारो।' उस तपस्वी का नाम महीपाल था। 

अपनी पत्नी की मृत्यु के दुख में वह साधु बन गया था। वह क्रोध से पार्श्वनाथ की ओर पलटा और कहा - किसे मार रहा हूं मैं? देखते नहीं, मैं तो तप के लिए लकड़ी काट रहा हूं।

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पार्श्वनाथ ने व्यथित स्वर में कहा- लेकिन उस वृक्ष पर नाग-नागिन का जोड़ा है। महीपाल ने तिरस्कारपूर्वक कहा - तू क्या त्रिकालदर्शी है लड़के.... और पुन: वृक्ष पर वार करने लगा। तभी वृक्ष के चिरे तने से छटपटाता, रक्त से नहाया हुआ नाग-नागिन का एक जोड़ा बाहर निकला। एक बार तो क्रोधित महीपाल उन्हें देखकर कांप उठा, लेकिन अगले ही पल वह धूर्ततापूर्वक हंसने लगा।

तभी पार्श्वनाथ ने नाग-नागिन को णमोकार मंत्र सुनाया, जिससे उनकी मृत्यु की पीड़ा शांत हो गई और अगले जन्म में वे नाग जाति के इन्द्र-इन्द्राणी धरणेन्द्र और पद्‍मावती बने और मरणोपरांत महीपाल सम्बर नामक दुष्ट देव के रूप में जन्मा।

पार्श्वनाथ को इस घटना से संसार के जीवन-मृत्यु से विरक्ति हो गई। उन्होंने ऐसा कुछ करने की ठानी जिससे जीवन-मृत्यु के बंधन से हमेशा के लिए मुक्ति मिल सके। कुछ वर्ष और बीत गए। जब वे 30 वर्ष के हुए तो उनके जन्मदिवस पर अनेक राजाओं ने उपहार भेजें। अयोध्या का दूत उपहार देने लगा तो पार्श्वनाथ ने उससे अयोध्या के वैभव के बारे में पूछा।

उसने कहा- 'जिस नगरी में ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदननाथ, सुमतिनाथ और अनंतनाथ जैसे पांच तीर्थंकरों ने जन्म लिया हो उसकी महिमा के क्या कहने। वहां तो पग-पग पर पुण्य बिखरा पड़ा है।

इतना सुनते ही भगवान पार्श्वनाथ को एकाएक अपने पूर्व नौ जन्मों का स्मरण हो आया और वे सोचने लगे, इतने जन्म उन्होंने यूं ही गंवा दिए। अब उन्हें आत्मकल्याण का उपाय करना चाहिए और उन्होंने उसी समय मुनि-दीक्षा ले ली और विभिन्न वनों में तप करने लगे। चैत्र कृष्ण चतुर्दशी के दिन उन्हें कैवल्यज्ञान प्राप्त हुआ और वे तीर्थंकर बन गए। वे सौ वर्ष तक जीवित रहे। तीर्थंकर बनने के बाद का उनका जीवन जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में गुजरा और फिर श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन उन्हें सम्मेदशिखरजी पर निर्वाण प्राप्त हुआ।

भगवान पार्श्वनाथ का अर्घ्य 

जल आदि साजि सब द्रव्य लिया। 
कन थार धार न‍ुत नृत्य किया।
सुख दाय पाय यह सेवल हौं। 
प्रभु पार्श्व सार्श्वगुणा बेवत हौं।

Happy Independence Day - 15 August


स्वतंत्रता दिवस अमर रहे। जैनधर्म मुख्यतः कर्म पर आधारित है। यह न ही तो हिन्दु धर्म की तरह यह मानता है कि पत्नी के करवाचौथ के व्रत रखने से पति की आयु बढ जाती है एवं न ही इस्लाम की तरह यह मानता है कि बकरे कि बलि एक शहादत है जो पाक होती है.. जैन धर्म के अनुसार न ही तो किसी और के अच्छे कर्मो का फल हमे मिल सकता है और न ही हमारे बुरे कर्मो का फल किसी और को... जैन धर्म मे कर्म की स्पष्ट एवं व्यावहारिक परिभाषा है जो हमे मानवता, कर्तव्यपालन एवं न्याय की प्रेरणा देती है। अपने देश की रक्षा करना एवं शत्रु द्वारा आक्रमण करने पर उसका प्रतिकार करना भी हमारा कर्तव्य है। यद्यपि न्यायपूर्वक भी युद्ध करने मे हिँसा का पाप थोडा तो लगता ही है परंतु यह हिँसा संकल्पी नही होती अतः शत्रु के आक्रमण करने पर भी चुपचाप वैठे रहने से लगने वाले पाप की अपेक्षा कम हिँसक होती है.. हमारे भारत के वीर सैनिक इसके प्रत्यक्ष उदाहरण है, कई दशकोँ से केवल भारत ही एक ऐसा बडा देश है जिसने कभी किसी अन्य देश पर स्वयं आक्रमण नही किया.. जो व्यक्ति अपनी मातृभूमि से प्रेम नही करता वह न ही तो अपने धर्म का सम्मान कर सकता है एवं न ही मानवीय मूल्योँ को समझ सकता है।। अतः राष्ट्रधर्म का निर्वाह करना हमारा परम कर्तव्य है। राष्ट्रधर्म से तात्पर्य सीमा पर जाकर लडने से ही नही बल्कि अपनी क्षमता के आधार अपने देश, समाज, नगर एवं संस्थानो को स्वच्छ एवं सुव्यवस्थित रखने से है देश की संपत्ति हमारी अपनी संपत्ति है इसका अर्थ ये नही कि हम इसे तोडेँ फोडेँ जो चाहे करेँ बल्कि इसे सहेज कर रखेँ एवं सुरक्षा करेँ। आज भारतीयोँ मे आत्मसम्मान की बहुत कमी है वे अपने देश को बहुत पिछडा समझते है जबकि हमारे भारत की महिमा अनंत है यहाँ जो है वो कहीँ और नही। भारत की गंदी गलियाँ सडके कई भारतीयोँ की गंदी सोच का नतीजा है.. सडक से कचरा उठाकर कचरेदान मे डालने से कोई नीचा नही होता। इसी सोच के कारण जापान जर्मनी सिँगापुर जैसे छोटे देश इतने विकसित एवं स्वच्छ है। यदि इस स्वतंत्रता दिवस पर आप राष्ट्रभक्ति करना चाहते है तो आप ये छोटे कदम उठा सकते हैः- 1)अपने भारतीय होने पर गर्व, भारतमाता,राष्ट्रगान एवं अन्य राष्ट्रीय चिन्होँ के प्रति ह्रदय से सम्मान। 2)जल,भोजन, बिजली एवं अन्य संसाधनो का संरक्षण। 3)अपने घर,विद्यालय, आफिस के आसपास की सफाई का ध्यान एवं कभी खुले मे कचरा न फेकने का प्रण। 4)जरुरतमंदो की यथासंभव मदद करना। 5)यदि आप Student है तो अपने दोस्तोँ के साथ एवं Job करते है, तो अपने Co employees के साथ मिलकर सफाई अभियान, Re Cycling events का आयोजन। विश्वास कीजिए यदि आप इन कर्तव्योँ का पालन करतेँ है तो आप किसी सैनिक से कम नही है। प्रत्येक जैन एवं प्रत्येक भारतीय (हिँदु,मुस्लिम, सिख,इसाई) का यह कर्तव्य है कि वो अपने राष्ट्र के प्रति समर्पित हो। ।।जय जिनेन्द्र।। ।।जय भारती।। By Tatwarth Sutra

दीपावली जैन पूजन विधि

  दीपावली जैन पूजन विधि Ø   स्नान आदि से निवृत होकर स्वच्छ वस्त्र परिधान पहनकर पूर्व या उत्तर दिशा सन्मुख शुद्ध आसन पर बैठकर आसन के सामने ...